________________
PAKKAK
पति भूतले भिया । दुरक्षरसादस्य सदादस्य दुरक्षरः ॥ २४२ ॥ युग्मं ( अप्रतिलोमानुलोम ) स्वचक्रमिव तस्यासीत्पर चक्र च धीमतः । इयं चक्र मदीयं हि परकोयमदः स्फुटं ॥ २४३ ॥ इति वृद्धिविनाशेन गतं चक' स्वकीयकं ॥ भिन्नभावाद्विभिन्नत्वं जायते भरतेशवत् ॥ २४४ ॥ भोगवस्त्रांगरान्यादिसुखानां नृपतिस्तदा । अतृष्यद्वीरधीः सर्वशात्रवाश्लिष्टपत्कजः ॥ २४५ ॥ एक दाविष्टरासीन: पुपला बिमुखाजिनं । सुब्रताख्यं समायातं श्रुत्वासी वन्दितु यथौ ॥ २४६ ॥ त्रिः परीत्या सद्भक्त्या नत्वा स्तुत्वा भी उसके शत्रु पृथ्वीतलपर मारे भयके लड़ते पुड़ते थे— रंचमात्र भी अपना वल नहीं दिखा सकते थे ॥ २४१-२४२ ॥ महानुभाव उस राजा मित्रनन्दीका पर चक्र भी स्वचकके समान था अर्थात् शत्रु और मित्र दोनों ही उससे प्रसन्न थे क्योंकि यह चक्र-राज्य मेरा है और यह चक्र दूसरोंका है जहां पर यह बिभाग रहता है वहांपर तो स्वपरका भेद रहता है परन्तु उस राजाकी वैसी भेद बुद्धि थी नहीं इसलिये अपना और पराया दोनों प्रकारका राज्य उसका स्वराज्य ही था किन्तु जिससमय भरतचक्रवर्तीके समान अपने भी राज्य में भेदबुद्धि हो जाती है -- वह भी अपने निजस्वरूपसे भिन्न मान लिया जाता है, उसमय वह भी भिन्न ही रहना है और उसे छोड़ देना पड़ता है। भरत चक्रवर्तीको जिससमय छह खण्डकी विभ तिसे वैराग्य हो गया था उस समय समस्त राज्यका उन्होंने त्याग कर दिया था ॥२४३ - २४४ ॥ वह धीर वीर राजा भोग वस्त्र शरीर और राज्य आदिसे जायमान सुखसे सदा तृप्त रहता था भोर समस्त शत्रु, उसके चरणोंको
नमस्कार करते थे ॥ २४५ ॥
एक दिनकी बात है कि वह राजा मित्रनन्दी सानन्द राज सिंहासनपर विराजमान था उसी समय एक माली राज सभामें आया नमस्कार कर 'भगवान मुनिसुव्रतनाथका समवसरण आया है' यह उसने समाचार कहा । मालीके मुख से वह उत्तम समाचार सुन राजा मित्रनन्दीको बड़ा आनन्द हुआ और वह भगवान मुनिसुव्रतनाथको बंदना करने चल दिया ॥ २४६ ॥ समवसरणमें
BKPKAVRK
PKKKK
पुर