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सादर प्रभा ! ॥ ३३६॥ यत्र राष्टे गृहे गज्ये वेद्भवेत् खेचरश्च सः। तदा मुमिक्षिता गज्येऽहितमको भवेदिति ॥ ३४० ॥ मृगकेतो! व कारं प्राप्यत दररथोदितः रिया तागिहें प्राह तं स कामी मदातुरः ॥४१॥ है विभो ! विद्यतेऽनापि मेघाख्यः स कलान्वितः
स गंतु तब शक्रोति नापरे भून हे ऽहले ॥ ३४२ ॥ तमाकाय जबादाजा प्राक्षिणोवानहाशं । तस्मिन् गते मृगो गेह गतस्तस्य स्मर
तुरः॥ ३४३॥ म.या मिति झाय स्यागतं प्रायशः कृतं । हया स्थापमन् ! कृपाकारि यदन त्वं समाटितः॥३४ा, इति कृत्या तया साध्व्य मी उत्तम पक्षी रहता है वहां कभी भी दुर्भिक्ष न होकर सदा सुभिक्ष रहता है और अहितका नाश होनः -
है। मृगकेतुकी यह कौतुक भरी बात सुन राजाने कहा-भाई मगकेतु ! उस पक्षीकी प्राप्ति होगी | कसे ? वस कामी और काम पीड़ित मगवेतुने जब राजाकी यह लालसा देखी तो उसे बड़ा आनंद हुआ और वह इसप्रकार कहने लगा
राजन् ! आपकी राजधानी में एक मेघ नामका सेठ रहता है जो कि एक उत्तम वंशका है । समस्त पृथ्वीके मनुष्योंमें वहीं सिंहल द्वीप जानेकी सामर्थ रखता है अन्य कोई नहीं आप उसे |
अवश्य भेज दीजिये ॥ ३३८-३४२ ॥ राजाकी आज्ञा अनिवार्य होता है। मंगकेतुकी वातपर वि 12 Mश्वास कर राजाने शीवहीं मेघको राजसभामें बुलाया और आग्रह कर सिंहल द्वीप भेज दिया ।
जव श्रेष्ठी मेघ नगरसे प्रयाण कर गया तब काम पीड़ित मृगकेतु शीघ्र ही उसके घरकी ओर चरू दिया और निर्भय हो घरमें प्रवेश कर गया ॥३४३॥ सेठानी कायांकी पूर्ण पतिव्रता था इसलिस जा मृग केतुको देखकर अन्ता न तो उसका क्रोधसे भवल गया परन्तु उस समय क्रोध करनेमें चतुरत. न समझ ढंग बदल कर मृगवे तुका उसने स्वागत किया और ठंडे वचनोंसे इसप्रकार कहा
स्वामिन् ! आइये आपने बड़ी कृपाकी जो मुझ अभागिनीके घर आप पधारे तथा ऐसा कह कर उसने शीघही एक गढ़ा विष्टासे भरवा दिया। रस्सीसे विना वुना एक पलङ्ग उस पर विश्वा दिय,
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