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मगधप्रभो ! ॥ २७९ ॥ जम्बूद्रापत्र : विख्याते भारते चास्ति सत्पुरी । श्रावस्ती सुखमान्धोता पोरतीय प्रिया ॥ २७६ ॥ सुवेपयमिताप्रातमुखचंद्रां शुभंडिता: । सुवेश कामवेषातिशाथिनीरभरभृता ॥ २७७ ॥ तत्राभूपतिर्वाम्ना सुकेतुभगतत्परः । दाता पाता प्रजानां च हंता हर्ता रिदुःस्थितीः ॥ २७८ ॥ द्य तसंशक चेताः स रेमे द्यूतं निरंतरं । गुणाः सर्वेऽनुकूला हि नो भवति शरीरिणां ॥ २७६ ॥ अमात्यैः स्वहितैः प्राज्ञ निषिद्धों बहुशोऽपि सः । विरराम न तस्माच्च ज्ञातस्वादो हिदुस्त्यजः ॥ २८० ॥ एकदा शत्रु भूपेनादीदव्यत्कर्मनोदितः । निषिद्धपि हितैर्मूदो विनाशे विपरीतता ॥ २८९ ॥ चित देशं वल सर्व पहुंराक्षी क्रमा
जम्बूद्वीपके भरत क्षेत्रमें एक स्रावस्ती नामकी उत्तम नगरी है जो कि अनेक सुखोंकी स्थान है। स्वर्गपुरी के समान नेत्रोंको आनन्द प्रदान करनेवाली है । उत्तमोत्तम वेषोंको धारक ि योके मुखरूपी चन्द्रमाकी किरणोंसे शोभायमानं है । उत्तमोत्तम महलोंसे देदीप्यमान है एवं कामदेवके समान उज्ज्वल जलोंसे परिपूर्ण तालावों से व्याप्त है ॥। २७६-२७७ ॥ सावस्ती नगरीका स्वामी राजा सुकेतु था जो कि इच्छानुसार परिपूर्ण भोग भोगनेवाला था । दानी था । पूर्णरूपसे प्रजाकी रक्षा करनेवाला था । वैरियोंका नाश करनेवाला और प्रजाके कष्टोंका हरनेवाला था | अनेक गुणोंका भण्डार भी वह राजा जुआ खेलनेका अत्यन्त शौकीन था । जूम में दत्तचित्त हो कर वह सदा या खेलता रहता था ठीक ही है किसी भी संसारी जीवों सब गुण अनुकूल नहीं रहते । गुणोंके साथ में कोई न कोई वलवान दोष भी अवश्य रहता है ॥ २७६ ॥ राजा सुकेतुको | उसके हितैषी और विद्वान मंत्रियोंने कई वार जुआ खेलनेसे रोका था परन्तु उसने बन्द नहीं किया था ठीक ही है जिस मनुष्यको जिस बात का स्वाद पड़ जाता है वह जल्दी छूट | नहीं सकता ॥ २८०॥ राजा सुकेतुका एक वलवान शत्रु अन्य राजा था अशुभ कर्म के उदयसे राजा रोका सुकेतुने उसके साथ जुमा खेलना प्रारंभ कर दिया। यद्यपि उसके हितैषी मंत्रियोंने वह बहुत
जूमा खेलना
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पुराण
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