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भ्रातर्दृश्यते यदि धोधनं । अशुभ वा शुभ वेगात् ज्ञायते सुधिया तदा ॥ १३१ ।। अतोऽहं चिंतया यस्तो स्वामीति करंडकं । पाम तकैः पुष्पेभृतं दृष्ट्या विचारतः ॥ १३२ ॥ पुष्पमाली तथा मूत क्रूर वक्रविलोचन'। चक्रिण' भयतो दृष्ट्वा गणेति विचक्षणः ॥ १३३ ॥ हे नाथ ! मदनोद्याने तव पुण्यप्रभावतः । समायातः सुराधोशः स्तुतो बिमलयाहनः ।। १३४ ॥ तन्माहात्म्याइन देखते हो वह उसपर आसक्त हो गया और उसे तत्काल हर कर ले गया ठीक ही है जो मनुष्य ।
हृदयके दुष्ट होते हैं वे क्या क्या उपद्रव नहीं कर छोड़ते हैं जो द्विजिह्व-चुगलखोर होते हैं * खर-कठोर होते है। ईर्षा सहित होते हैं। विचार न कर कार्य करने वाले होते हैं वे लोलुपी
अनेक प्रकारके अनर्थोको करते हुए भी सदा काल जीवित रहते हैं। नारायण स्वयंभ इसप्रकार | कह कर अन्तमें अपने भाई बलभद्रसे कहा__ भाई ! तुम अत्यंत बुद्धिमान हो जो वात असंभव दीख पड़े बुद्धिमानोंको चाहिये कि उसके | विषयमें शुभ अशुभका ज्ञान अच्छी तरह करले सार यह है कि असंभव मंदारपुष्पोंकी मालाका | हठ कर कन्या परम सुन्दरीने जिसप्रकार अपना सर्व नाश कर डाला था उसीप्रकार सामने रक्खी | डालीके अन्दर भी जो फल फूल दीख पड़ते हैं वे इस ऋतुके असंभव है इनके देखनसे भी मुझे यही प्रतीत होता है कि कहीं बखवान अनर्थका सामना न करना पड़े। इसलिये हे भाई ! समस्त ऋतुओंके फल फूलोंसे भरी हुई इस डालीको देख कर मुझे बड़ी भारी चिंता हो गई है एवं
आगे कोई बलवान अनर्थ न आकर उपस्थित हो जाय इस विचारसे मेरा चित्त बड़ा उथल पुथल | हो रहा है । बस ऐसा कहते कहते नारायण स्वयंभू का मुख क्रूर हो गया नेत्र वक्र सूझ पड़ने लगे राजाकी यह दशा देख माली मारे भयके कप गया एवं अपनी चतुरतासे उनके हृदयका भाव समझ वह इसप्रकार विनय पूर्वक कहने लगा-- ___ कृपानाथ ! आपके अलौकिक पुण्यके प्रभावसे मदन नामके वनमें भगवान विमलनाथका समव| सरण आया है उन भगवानकी बड़े बड़े इन्द्र पूजा और स्तुति करते हैं। उन्हीं भगवानके पुण्यके
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