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अदृष्ट' हि मया दृष्ट' पछिद्र' सुभाषते ॥ २१०॥ वार्यमाणोऽपि मूढः स जात्यंधो नियत भवेत् । उत्तमोऽपि सुरामांसभक्षण कुस्ते यकः ॥ २११॥ अजीर्णो दररोमो स नोचानां का पतिः परा । मुनि दृष्ट्वा मदेनांधो निष्टोवं कुरुते यकः ॥ २१३ ॥ रक्तपित्ती च कुण्ठो सजायते कर्मपाक्तः । जात्यहंकारसंशक्ताः कृतघ्नाः स्वामिद्रोहिणः ॥ २१३॥ परकार्यकरी निःस्वास्ते भवति भवे भवे। वि. श्वासघातिनो जोवा रोगाकांताश्च कुत्सिताः ॥ २१४ । कृपालीना मनःशुद्धाः परधाराधनादिषु । भैषज्यदायिनो जीवा नोरोगा योभवति ते ॥ २१५॥ सूक्ष्मभ दादिसिद्धांतं श्रुत्वा निदति मूढधीः। स स्यान्मूकोऽत संसार बिचित्रा कमणों
गतिः । व शोल यमं नात्या मुंबंलि चिश्यादिशा। तेषां कंपादयो देहे सम्पयन्से न संशयः ॥ २१६॥ पक्षिपक्ष हि यो *दोषको प्रगट करता है वह मूढ मनुष्य नियमसे जन्मसे ही अन्धा होता है। जो मनुष्य उत्तम कुल
में उत्पन्न होकर भी शराब मांस आदिका भक्षण करते हैं वे अजीर्ण रोगसे ग्रस्त उत्पन्न होते हैं। फिर जो नीच कुलमें उत्पन्न होनेवाले हैं और शराव मांस आदिका भक्षण करते हैं उनको तो वात ही क्या है उन्हें तो और भी अनेक रोग सताते हैं।जो पुरुष मुनिराजको देखकर मदोन्मत्त हो उन पर थूकते हैं वे उस निंद्य कर्मकी कृपासे खून फिसाद पीलिया और कोढसे ग्रस्त होते हैं। जो मनुष्य वृथा अपनी जातिका अहङ्कार करनेवाले हैं कृतघ्नी और स्वामीद्रोही हैं वे दास होते हैं और भवर में उन्हें दरिद्रताका दुःख भोगना पड़ता है। जो मनुष्य विश्वास घाती हैं वे मनुष्य अनेक रोगोंसे व्याप्त और निनि त होते हैं ।। २१०-२१४ ॥ किंतु जो मनुष्य दयालु होते हैं परस्त्री और पर धनके अन्दर चित्त शुद्ध रखते हैं एवं दूसरे रोगी जीवोंको औषध प्रदान करते हैं वे जीव संसारमें नीरोग होते हैं कोई भी रोग उन्हें नहीं सताता ॥ २१५ ॥ जो दुष्ट पुरुष अत्यंत गहन जैन सिद्धांतको श्रवण कर उसकी निन्दा करता है वह मूक-गूगा होता है क्योंकि कर्मोकी गति बड़ी विचित्र है हर एक मनुष्य कोकी गतिका ज्ञान नहीं कर सकता।।२१६॥(क)जो पुरुष व्रत शील यम आदिका | नियम आदि लेकर विषयोंके लोलुपी हो उन्हें छोड़ देते हैं यह निश्चय है उनके शरीरमें कम्प
आदि रोग उत्पन्न होते हैं ॥ २१६ ॥ (ख) जो दुष्ट पुरुष पक्षियोंके पंखोंको काटते हैं वे अज्ञानी