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तुकं रमा हास्यहिताः पतेर्गलात् । नीत्वा मंदारसन्मालामक्षिपद्योगिनः पुस । १०५ ॥ यदा योगी गृहीत्वाथ मालां मौनाधितोऽभवत् सदा कन्या घर' मत्वा गूढवेष' समाटिता ॥१०६॥ पिता धाश्या नाला निषेध्य स्थापिता यदा । कापाली क्रोधसंपूर्णः प्रतारण्य' ययौ ध्रुवं ।। १०७॥ वित्तेऽसौ नितयामास चिर चेति विचक्षणा । मामागतवती कन्या वारित ते न पठात् ॥ १०८ ॥ कि करोमि महापापधारिणां दुम्सह त्वरा । एतेो दुधियां राक्षां ध्यात्वेति निशि तस्थिवान् ॥ ३० ॥ स्मशाने सर्पदुर्यभयूथवल्गनभोकरे । रुधिरोद्गारसंसिलभूतले कातराशिनि ॥ ११०॥ (युग्मं ) तत्र संसाधयामास विद्या अपने पति मणिचलकी यह वात सुन रम्भाको बड़ी हसी आई एवं हंसी करनेके लिये पतिके गलेसे उसने मंदार पुप्पोको माला निकाल कर पापाली योगीके सामने पटक दी ॥ १०२-१०५ ॥ योगीने शीघ्र ही माला उठाकर अपने गलेमें डाल ली और वह मौन धारण कर चुप चाप बैठ गया। कन्याको भी वह पता लग गया कि गढ़ वेषका धारक वर प्राप्त हो चुका है इसलिये वह शीघ्र ही योगोके पास आने लगी ॥ १०६॥ कन्या परमसुन्दरीकी यह दशो देख उनके पिता धाय और | राजाओंने उसे रोक दिया,कपालीके पास नहीं आने दिया यह देख कपाली एकदम क्रुद्ध हो गया। ka और वह शीघ्र ही प्रेतारण्य वनकी श्मशान भूमिके अन्दर चला गया ॥ १०७॥ वहां पहुंचकर वह योगो अपने मनमें यह विचार करने लगा कि--
देखो वह दिव्य मूर्ति चतुर कन्या अपनी प्रतिज्ञानुसार मुझ पर आसक्त हो मेरी ओर आती . * थी सो इन राजाओंने जवरन उसे आनेसे रोक दिया । ये राजा लोग महा पापी और दुर्बुद्धि हैं ।
मुझ इनके लिये कोई ऐसा दुःखजनक कार्य करना चाहिये जिससे ये कष्ट भोगे, वस ऐसा दृढ़ विचार कर वह योगी स्मशानभूमिके ऐसे प्रदेश में बैठ गया जो कि भयङ्कर सर्प और राक्षसोंके फत्कार और धत्कारोंसे भयङ्कर था। जिसका पृथ्वीतल रुधिरके फव्वारोंसे सदा तल वतल म्हता
थो और कातर डरपोकोंको निगलनेवाला था ॥१०८-११०॥ वह योगी उस भयङ्कर स्मशानभू मिमें * किसी मृत मनुष्यके मस्तक पर आसन जमाकर बैठ गया और वज्र खलिका नामकी भयङ्कर
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