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|स्तपोऽरण्यांतरेषु च ॥४७॥ निजदीक्षाघने तस्य घातिकर्मक्षयात्परं । बडोपवासिनो माये षष्ठयां पले शिते भूश ॥४८॥ अपराई स्वदीक्षाया नक्षत्रे च शुभोदयात् । मूले जम्बुद्र मस्यैव प्रादुरासीच्च केवलं ॥ ४६॥ (युग्म)जानकल्याणक बकः सुमासीरादयो ऽमराः। समयमृतिसच्छाया पुनर्वाचामगोचरी ।।११।। योधयामास भन्यौघाम्भोरमा तमोरिषत्। नानाजनपदे देवो लेने शार्चितपस्कजः ।। ५१॥ पुरस्ताद्धर्मचक्र वैश्वान सयघोषण । यशमूर्धस्थित सानाधर्कविंधो धभौ यथा ॥ १२॥ गणानां मुने- Im मोत्तम भोगोंका प्रदान करने वाला माना जाता है॥ ४५ ॥ जिनोंमें श्रेष्ठ वे भगवान विमलनाथ राजा विजयके घरमें आहार लेकर वनको लौट गये। उनके शरीरकी कांति सुवर्णमयी थी और अनेक देव उनकी सेवा करते थे इसलिये वे अनेक देवोंसे वेष्टित सुवर्णमयी मेरुपर्वत सरीखे जान पड़ते थे॥ ४६॥ भगवान विमलनाथने अपने निर्मल चित्तसे सामायिक रूप संयमको धारण कर वनके मध्य में तीन वर्ष तक घोर तप तपा वाद उन्होंने उसी सहेतुक नामक अपने दीक्षावनमें बेलाकी प्रतिज्ञा कर तीन तपसे ज्ञानावरण आदि घातिया कर्मों को नष्ट किया जिससे माघ सुदी छठके दिन जब कि दुपहरका समय था और दोचा नक्षत्र वा जन्म नक्षत्र विद्यमान था जंबू | वृक्ष के नीचे शुभके उदयसे उनके केवल ज्ञान प्रगट हो गया ॥ १७-४६ ॥ भगवान विमलनाथको केवल ज्ञान होते ही उनके ज्ञान कल्याणका उत्सव मनाने के लिये शीघ्र ही इंद्र आदि देवगण उस सहेतुक वनमें आ गये । एवं जिसकी महिमा वर्णन नहीं की जा सकती ऐसा अत्यंत देदीप्यमान समवसरण रच दिया गया ॥५०॥ जिनके चरण कमलोंको बड़े बड़े इन्द्र आदि देव सेवा करते हैं ऐसे वे भगवान विमलनाथ अनेक देशोंमें विहार करने लगे एवं जिस प्रकार सूर्य कमलोंको खिशाता है उसीप्रकार सूर्यखरूप वे भगवान भव्यरूपी कमलोंको बोधने लगे-वास्तविक उपदेश देने लगे॥५१॥ जिस प्रकार पहाड़की शिखरपर विद्यमान सूर्य शोभित होता है उसीप्रकार यक्षों 51 के मस्तकॉपर विराजमान और "हे भगवान विमलनाथ आपकी जय हो" इत्यादि रूपसे जय २ | घोषणा करता हु धर्मचक्र उम्के आगे नागे चलने लगा ॥ ५२ ॥ जिसप्रकार सतर्षि आदि
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