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शीरं विधात्वा च मात्रा बलविशालिना ॥६६॥ मदोद्ध रानपान जित्वा प्रजाः पालयति न तावन्नानामहादेशान् विहत्यागतवान् जिनः १६७ निलोभो निमलः शांतो रागद्वेषच्युनोऽच्युतः। तर्हि गत्यागतो तस्य प्रकाश्येते कथं परैः॥६॥ उदयाद्रादेत्येव प्रत्यहं मास्त मोहितः । नियोगोऽय तथा तस्य पाथातथ्यपबोधकः ॥ ६ ॥ तत्पुरोमदनोद्याने शकाज्ञाधारिणा मुदा । धनदेन विचित्राम विट'
निर्ममे महत् ।। ७० ।। दुर्गभित्तमहापीठसापानानां विचित्रता। मानस्तंभतागानां सवारस्य सत्कवे । १।। प्रादुर्भवत लेग्ने. - शमायया समवतिः । स्थानांगीकारकास्य क्षप्पेन केवलक्षणे ॥७२ ॥ तन्मध्यस्थो जिनो-रोजे शानदृष्टजगत्त्रयः । सुरेशैः स्वर्गवा Ad अनेक मदोन्मत्त राजाओंको जीतकर वह नारायण स्वयंभ सानन्द प्रजाका पालन करता था कि
उसी समय अनेक देशोंमें विहार कर भगवान विमलनाथ वहां पर आये । वे भगवान परम निर्लोभ, थे । समस्त दोपोंसे रहित निमल थे। शांत थे। राग और द्वषसे रहित एवं अविनाशी थे इस लिये यह बात हरेक मनुष्य जान ही नहीं सकता था कि कहां उनका जाना होता था और कहां | आना होता था। जिस तरह चंद्रमा प्रतिदिन उदयाचलपर उदित होकर अस्ता चल पर अस्त होता है यह उसका नियोग ही है उसीप्रकार गमन आगमन भी भगवानका नियोग स्वरूप ही था क्योंकि । वह गमन आगमन यथार्थ रूपसे पदार्थोंका प्रबोध करनेवाला था। जो पुरी नारायण स्वयंभ की। राजधानी था उसी पुरीके मदन नामक उद्यानमें भगवानविमलनाथके आजाने पर आनंदित हो कुवरने । इन्द्रकी आज्ञासे शीघ्र ही समवसरण रचना प्रारम्भ कर दिया जो कि विचित्र शोभाका धारक था, विशाल था । समवसरणके अंदर चित्र विचित्र प्राकार उनकी भीतियां, विशाल सिंहासन, स्टोड़ियां,मानस्तंभ और तालावोंकी जो रचना की गई थी उसका वर्णन धुरन्धर कवि भी नहीं। कर सकते थे । वस केवल ज्ञानसे विराजमान भगवान् विमलनाथके ठहरते ही इद्रकी मायासे शीघ्र ही समवसरण तैयार हो गया और वे भगवान् विमलनाथ जो कि अपने दिव्य ज्ञानसे तीनों में लोकोंके जाननेवाले थे एवं जिनके चरण कमलोंको जय जय शब्दोंके करनेवाले व्यंतर आदि देवेंद्र
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