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डिव । गतं कालं न जानाति श्रेणिकः शेषविक्रमी ॥ ५२६ ॥ प्रतापजितमार्तंडो वक्त्रनिर्जितचंद्रमाः । बुद्धया चातिगुरु राजा राजते जितशात्रयः || ५३० || स्वाम्यमात्यसुहृत्कोपदेशदुर्गक्लाम्बितः । सप्तांगमिय सद्राज्यं भुनक्ति मगधाधिपः ॥ ५३१ ॥ स्वर्णसद्वर्ण काश्मीरललामललभालकः । स्वर्णानुविद्धमुक्काम हाराम्बितगलः फलः ॥ ५३२ ॥ स्वर्णाभः स्वर्णदो स्वर्णविभूषितगजाश्चकः । स्वर्णग्राह च शत्रुभ्यः स्वर्णकुंडलमंडितः || ५३३ || मुक्ताफलरदोन्मुतालीनोमुक्तानप्रभः । मुक्ताकांक्षी मुमुक्ष र्णा गुणग्राही सुद र्शनः ॥ १३४ ॥ दविर्द्दनं सुपात्रेभ्यः पतिर्धर्मामृतं परं । सज्जनौघान् समाजहिश्वविवाहितांडनां ॥ ५३५ ॥ सहसुद्वयभूपालकिरीटा
और उत्तमोत्तम क्रीडाओंसे इन्द्रके समान थे और जाते हुए कालको तनिक भी नहीं जानते थे । महाराज श्रेणिकने अपने दीप्त प्रतापसे सूर्यको जीत लिया था । मुखकी सुंदरतासे चंद्रमा नीचा कर दिया था । बुद्धिसे इन्द्रके गुरु वृहस्पतिको हरा दिया था एवं समस्त वैरियोंको जीत लिया था इसलिये वे अत्यंत शोभायमान थे । तथा मगध देशके स्वामी वे महाराज श्रेणिक, राजा मन्त्री मित्र खजाना देश किला और सेना रूप राज्यके सात असे वष्टित हो उत्तम राज्यका इच्छानुसार भोग करते थे ।। ५२८ -- ५३१ ॥ वे महाराज श्रेणिक ललाटपर सुवर्णके समान उत्तम वर्णके काश्मीरी चंदनका तिलक लगाते थे । मलेमें सुवर्णके तार में पिरोए हुए मोतियोंका हार पहिने थे । मनोहर थे । सुवर्णके समान कांतिवाले थे । याचकोंको सुवर्णका दान देनेवाले थे । उनके हाथी और घोड़े सुवर्णके भूषणों से भूषित थे । शत्रुओं से वे न्यायानुकूल कारण लेते थे । सुवर्ण कुण्डलों से भूषित थे। उनके दांत मोती सरीखे थे। जिस चीजको छोड़ देते थे-दान कर देते थे फिर उसकी लालसा नहीं रखते थे । मोतियों के समान नखोंकी कांतिसे शोभायमान थे । मो की सदा अभिलाषा रखते थे । जो महानुभाव मोनाभिलाषी थे उनके गुणोंको ग्रहण करनेवाले थे सम्यग्दृष्टि थे। सुपात्रोंको अच्छी तरह दान देनेवाले थे । धर्मरूपी अमृतको सदा पीनेवाले थे । सज्जनोंको सदा प्रसन्न करने वाले थे। जो बात अहितकारी होती थी उसका सदा खंडन करते थे
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