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पाणां हावभावेश्च सार्थकान् चम्बनादिभिः ॥२३॥ भोगक्षीराधितिर्मन्नो गनं कालं न वेन्यौ। भूनि सौरये हि मानां यु ऽपि लवानि ।। १३२ । हरिकर भरशालिग्राज्यगय नोज्य - रायगनवदामाभोग मंदोददर्श । सकल मुन समुद्र पायालिंगितं । हाचि सुलोक लोकनायो दुना ॥ १३ ॥ काति५. कालामुनभाना-नाति हरिरामरता । भोजति रदं काम लभ भवति किं वृक्षतो न ।। १३४॥
इत्यापश्रीविमलनाथ पुराणे भट्टारकीरत्नभू पधाम्नायालंकारखाकष्णदास विरचिते मधोमंगलदाससाहा
यसापेक्ष श्रीविमलनाथोत्पत्तिशक विहिताभिषेकानंदनाटकवर्णनोनाम तृतीयः सर्गः ॥३॥ करते हैं और जो उत्तम ज्ञानके धारक हैं ऐसे झमबार विमरनाथला रावर काल तीस लाख वर्ष प्रमाण था ॥ १३१॥ वे भगवान विमलनाथ स्त्रियों के हाव भाव और चुम्बन आदिसे सार्थक छहो
ऋतुओंमें होनेवाले नाना प्रकारके भोगोंका आनन्द भोगते थे। भोग रूपी क्षीर समुद्र में मग्न पावे भगवान विमलनाथ अपनी आयुके गए हुए विशाल भी कालको नहीं जानते थे ठीक ही है जय ।
मनुष्य विशेष सुखमें मग्न होजाते हैं उस समय उन्हें विशाल भी युगांतकाल लव-छोटेसे काल | IS के टुकड़के समान जान पड़ता है ॥ १३२----१३३॥ जिस प्रकार सदा लक्ष्मीसे आलिङ्गित कृष्ण |
वर्ग लोकका सुख भोगते रहते हैं उसी प्रकार जो अनेक हाथी और घोड़ोंसे शोभायमान हैं। राजाओं के अभीष्ट हैं। पुण्यसे प्राप्त उत्तमोत्तम स्त्रियोंके भोगोंको प्रदान करने वाला है एवं समस्त | सुखका समुद्र है । ऐसे उस उत्तम राज्यको भगवान विमलनाथने सानन्द भोगा संसार मैं धर्म एक उत्तम पदार्थ है क्योंकि उसीकी कृपासे यश विशेष लक्ष्मी पुत्र सुन्दर स्त्रियां चकवतो
एना अर्ध चक्रीपना बलभद्र पदवी भोग भूमि का सुख और स्वर्गोंका सुख सुलभ रूपसे प्राप्त होता 1 पाता है । धर्मकी कृपासे कोई भी बात दुर्लभ नहीं ॥ १३४॥ " इस प्रकार भट्टारक श्रीरत्नमपणकी आम्नायमें ब्रह्म मंगलदासकी सहायता पूर्वक वाष्णदास द्वारा विरचित पिम नाथ पुराणमें भगवान विमलनाथकी उत:ति इंद्र द्वारा उनका जन्म कल्याण और आनन्द नाटकको वर्णन करने
वाला तीसरा सर्ग समात॥३॥
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