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३॥ तदेव तां गता भंग दृष्ट्वा राजा स्थमानसे । चिंतयामास वैराम्प सर्व कालेन नश्यति ॥ ४॥ किं बलेनामुना भग्ना किं लक्ष्म्या अपुषा पे च । किं कुटुम्ब सुतसोभिः कृत्यं मम हि संप्रति ।। ५॥ विधुदुन्मेषसंकाशं यौवनं च धनं धपुः । विद्यते क्षणिकं सर्व हिमानीव न संशयः ॥६॥ पितृपा भुनक्येव सुपुत्रोऽपि न जातु चित् । पुत्रचन्तनसो भागी सावित्री जनकश्च न ॥ ७॥ स्वं स्वं कर्म कृतं गणो भुनक्ति श्वभु सागरे । संसारे दुःख सौख्यस्य विभागीको न विद्यते॥ ८॥ भागनयात्मकं चायुर्गतं मम निरर्थक चतुःपादिव सद्धर्माधिनादो जीवितेन कि ॥ ॥ धर्मार्थकाममोक्षाश्च नासाधिषत यैरलं । ख्याति व्याप्ति प्रशंगश्च नाध्वंसि ते बृयाजनाः ॥ १० ॥ नहीं कुटम्म पुत्र स्त्री पदार्थ भी जो कि अत्यंत प्यारे माने जाते हैं उनसे भी मेरा कोई प्रयोजन नहीं सर सकता क्योंकि काल पाकर ये सब नष्ट होने वाले हैं सदा काल मेरे साथ रहने वाला कोई नहीं ।। ४।५ ॥ ये यौवन धन और शरीर विजलीकी चमकके समान चञ्चल हैं एवं जिस प्रकार यह कठिन भी बरफका समूह देखते देखते पिघलकर नष्ट हो गया है उसीप्रकार ये भी जणभर में विनश जाने वाले हैं, यह बिलकुल निश्चित बात है ॥६॥ पिता संसारके अन्दर जो पाय
करता है पुत्र उसका फल नहीं भोगता तथा पुत्र जो पाप उपार्जन करता है माता और पिता भी BAI उसके फलका भोग नहीं करते किन्तु दुःखके सागर रूप इस संसारमें अपने द्वारा किये गये कर्मका Ra फल आप ही भोगना पड़ता है। शुभ अशुभ कर्मसे जायमान दुःख और सुखका बटानेवाला कोई
भी नहीं है ॥ ७ ॥ ८॥ पशुकी आयु जिस प्रकार निरर्थक बीतती है उस प्रकार मेरी आयुक चार भागोंमें तीन भाग तो निरर्थक चले गये रंचमात्र भी मैं धर्मका आराधन नहीं कर सका क्योदि धर्मके बिना जीना बिफल है ॥ ६ ॥ संसारमें जिन महानुभावोंने धर्म अर्थ काम और मोक्षका
साधन नहीं किया और नाम एवं प्रसिद्धिकी अभिलाषा नहीं रोकी । पुरुष अधम हैं उन्होंने अपने 6] जीवनका कुछ भी मूल्य नहीं समझा ॥ १०॥ जिस मनुष्यका यह विचार है कि बृद्धावस्था आने
पर हम विषयोंको जीत लेंगे और उत्तम तपको तप लेंगे वह मनुष्य भले ही चाहे समर्थ हो ।
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