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परम्पयन
रम्यं किं कृतं सुकृतं बहु । यदत्र त्वं समायातः पुण्यलब्धा हि सिद्धवः ।। १२६ । श्रीमत्पुरुजिनेंद्रस्यार्चितं चरणपंकजं । किंवा चिरं तपस्तप्तं षटकायावन पूर्वकं ॥ १२७ ॥ दानं चतुर्विधं दत्तं पांत्रेभ्यः परमादरात । त्रयोदशाविधं चारुचारित्रं पालित नुते ॥ १२८ ॥ स्तुस्वेति मधुरालापैननांग्यः संखिता यदा । तदा वितर्कयामास देवेंद्रो मानसे निजे ॥ १२६ ॥ मुक्ताकदंधकलनमाला मणिनियंत्रिताः । विमानाः सूक्ष्मसंदर्भसंयुक्काः किममी ननु ॥ १३० ॥ नानर्द्धि संभृत स्थानमेतत्कौतस्कुतं ध्रुवं । बुबंति मधुरालापाः का पता घनमी. रुभाः ॥ १३१ ॥ कोऽहं कस्मात्समायातः संशये चेति तस्य चै । तृतीयावगमः साक्षात्यादुरासीद्गतम्रमः ॥ १३२ ॥ संबंधं स्वस्य के चरण कमलोंकी पुजाकी थी वा चिरकाल तक घोर तप तपा था अथवा छह कायके जीवोंकी | प्रतिपालना की सीमा उत्ता लगन जघन्य तीनों प्रकारके पात्रोंको अत्यंत आदरसे आहार औषधि शास्त्र अभय ऐसा चार प्रकारका दान दिया था अथवा तेरह प्रकारके परमोत्तम चारित्रको धारण | किया था ? बस इसप्रकार मधुर वचनोंमें स्तुति कर देवांगना नम्रीभूत हो जब यथास्थान बैठगई। उससमय वह सहसारेंद्र देव भी सहस्रार स्वर्गकी दिव्य विभूति देख इसप्रकार अपने मनमें विचार करने लगा___मोतियोंकी लाखों मालायें और भांति भांतिकी मणियोंसे रचे गये एवं जिनकी रचना अत्यंत कारीगरीके लिये हुए हैं ऐसे ये विमान मुझे क्या दीख पड़ते हैं । नाना प्रकारकी अनेक ऋद्धियोंसे व्याप्त यह मनोज्ञ स्थान क्या है ? एवं विजलीके समान चमचमाती हुई प्रभाकी धारक एवं अत्यंत मधुर बोलने वाली ये देवांगनाएं कौन हैं । मैं कौन था और यहां कैसे आगया ? बस इस प्रकारका संशय हो ही रहा था कि उसीसमय उसे तीसरा ज्ञान–अवधिज्ञान उत्पन्न हो गया जिससे उसका सारा भ म एक ओर किनारा कर गया ॥ १२७ । १३२ ॥ अवधिज्ञानकी ओर उपयोग लगा कर सहस्रारेंद्र देवने अपना सारा पूर्वभवका संबंध जान लिया एवं उसका हृदय आनंद से पुलकित हो गया। उसे उस प्रकार आनन्दायमान देखकर देवांगनाओंके हर्षका भी पारावार नहीं रहा। उनमें कोई देवांगना उसके मस्तक पर महामनोहर मुकुट लगाने लगी । कोई कोई
सापाचार