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दल प्रत्येकरंभा च ननृत्यति लयेमुदा । गजकुक्षिं प्रति प्रास्त्रयस्त्रिंशत्लभाः शुभाः ॥ ८५ ॥ तां प्रति समाख्याता स्वातोऽमर कोटयः । इत्यादिचनोपेत मारुरोह गर्ज सुरेंद्र ॥ ८६ ॥ सौधर्मेंद्रः शचीयुक्तो देव व्रातपुरस्कृतः । निर्ययौ स्वर्ग तो भावाद्भावो हि सज्ज नप्रियः ॥ ८७ ॥ अंतरिक्षे व्यवस्थाप्य सिधुरं तारकनं । अग्रवीद्मा मिनी मित्रश्चात्य त्वं गृदाज्जिनं ॥ ८८ ॥ अरिष्टांतर मागत्य तदा देवेशसुन्दरी । शंवरीममुचद्राशाः, नीत्वा वाल करेऽनमत् ॥ ८६ ॥ इन्द्रहस्ते शीघा गत्वा दत्तवती यदा सूर्य न तेजसां पु'जं पिलाकी ओर चल दिया। ठीक ही हैं जो सज्जन हैं-आत्माका वास्तविक स्वरूप समझते हैं उन्हे अपने उत्तम परिणाम ही प्यारे हैं वे धार्मिक कार्यको दिखावटी रूपसे नहीं करना चाहते ॥ ८५ ॥ सारा गणकी कांतिके समान सफेद उस ऐरावत हाथीको कपिला नगरीके ऊपरके श्राकाशमें टहरा दिया और भगवान जिनेंद्र को राज महलसे लाने के लिये अपनी प्यारी इंद्राणीको आज्ञा दी ॥८६॥ धर्मात्मा उस इंद्राणीने बड़े आनंदसे भगवान जिनेंद्र के गर्भ गृहमें प्रवेश किया । माया मयां निद्रासे माता जयश्यामाको निंद्रित कर दिया। बालक भगवान जिनेंद्र को उठाकर अपने हाथ में ले लिया । भक्ति पूर्वक नमस्कार किया एवं अपने प्राणनाथ इद्रके हाथमें लाकर समर्पण कर दिया जिस समय इंद्राणीने भगवान जिनेंद्र को इंद्रके हाथमें समर्पण किया उनकी सर्वोच्च और अहिती कांति निहार कर वह विचारने लगा कि :
यह साक्षात् सूर्यही मेरे हाथवर आकर रख गया है किंवा अनेक तेजोंका यह एक अद्वितीय 'ज है। बड़े आनंदसे उसने उस समय भगवान जिनेंद्रको, भक्ति पूर्वक नमस्कार किया एवं जिनकी असंख्याते देव बड़ े प्रेमसे सेवा करने वाले थे ऐसे उन बालक भगवान जिनेंद्र को गोदी में विराजमान कर वह बड़े समारोह के साथ मेरु पर्वतकी ओर चल दिया ।
पर्वत पर सौमनस आदि चार बनोंमेंसे एक पांडुक नामका बन है जो कि नाना प्रकारकी चित्र विचित्र शोभासे व्याप्त हैं । उसी पांडुक बनके अन्दर एक पागडुक नामकी शिला है जो
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