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चिंतयित्वा ननाम सः ।।नीत्वा जिनं गतो मेरावसंख्यसुरसेवितं । पाण्डुकाय वनं तत्र नानाशोभाभराचितं ॥२॥ पांडकाख्या शिला तत्र भाति मुक्तिरिवापरा । अर्धचंद्राकृतीरम्या दीर्घा सा शतयोजनैः ॥ १२ ॥ पंचाशद्योजनेदं वैबिस्तराव तथाष्टभिः । स्थूलयो जनस्तत्र सिंहासनत्रयं व्यभात ॥३॥ संस्थाप्य प्राङ्मुख देवं सौधर्मेद्रःस्थितस्ततः । क्ष.रवार्धिजल नेतु देवान् प्रेषयतिस्म सः ।। ४॥ अष्ट योजन गंभीरान् सहस्रप्रमितान् घटान् । अष्टाधिकान महारत्नविन्यासान् कनकात्मकान ।। ६५ ।। संयोज्य गगने देवा मुह कि दूसरी मोक्ष सरीखी शोभायमान जान पड़ती है। आधे चन्द्रमाके आकारको धारण करनेवाली है । अत्यंत मनोहर है। सौ योजन प्रमाण लंबी पचास योजन प्रमाण चौड़ी और आट योजन |प्रमाण मोटी है और उसके ठीक मध्यभागमें महामनोहर तीन सिंहासन विराजमान हैं। सौधर्म स्वर्गके इन्द्रने पूर्व दिशाकी ओर मुखकर भगवान जिन्द्रको उस मनोहर सिंहासनपर विराजमान कर दिया और क्षीर समुद्रसे जल लाने के लिये देवोंको आज्ञा दी॥७॥ १२ ॥ अपने स्वामीको आज्ञानुसार देवोंने कलशे उठाये जो कि आठ योजन प्रमाण गहरे थे। संख्यामें एक हजार आठ थे। नाना प्रकार के देदीप्यमान रत्नोंसे खचित थे और सुवर्णमयी थे ।। ६३ ॥ हे भगवान जिनेंद्र ! आप चिरकाल जीओ इत्यादि जय जयकार करने वाले दव पंक्तिरूपसे आकाशमें खड़े हो गये । एवं जिनेंद्र की भक्तिसे प्रेरित हो तोर समुद्र के जलसे भरे हुये घड़े आने लगे ।। १४॥ भगवान जिनेंद्रकी भक्तिस हर्षायमान गुणरूप सौधर्मस्वर्गके इन्द्रने शीघ्र ही मायामयी हजार भुजाओं की रचना कर ली और उन भुजाओस सुवर्णमयी कुम्भोंको ले लेकर बड़े ओदरसे भगशन जिनेंद्रका अभिषेक करने लगा ।। ६५ ॥ जिससमय भगवान जिनेंद्रका अभिषेक होने लगा उस
समय तरंगोंसे शोभायमान जल मेरुके चारों ओर पड़ने लगा। जलको वैसी दशा देख कर - देवोंको यह संदेह उत्पन्न होता था कि करोड़ों नदियां मेरु पर्वतसे निकल पड़ी हैं । नानाप्रकार
के देदीप्यमान रत्नोंसे व्याप्त मेरु पर्वतपर फैला हुआ वह इरा नीला आदि पांचों वर्गोंको धारण
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