________________
पराः | भावयामास चित्ते स्वे विधिना ग्रंथ वर्जितः ॥ ११॥ ततो प्रबंध तीर्धेशगोत्र संसारतारकं । मास द्वित्रिचतुःसंख्यपौषधक्षीण| सद्वपुः ।। ११४ ॥ सरित्तटेस हेमंते भ्रश्यद्रमकदंधके । देहदुःखाकरीभूते कायोत्सर्ग चकार घे ॥ ११५ ॥ ग्रीमे शैलतटेभोगी सूर्यस्या(भिमुखं स्थितः । मध्याहतापसंदग्ध कृष्णकायः परं जपन् ।। ११६॥ प्राबृषि चपलागर्जिखायां भूरुहस्तले । बल्लीपिहितगात्रः सन् विदधे
सत्तपश्चिरं ॥ ११७ ॥ रागद्वेषाच्युतो मौनी निद्रालस्यविवर्जितः । चिद् पध्यान संसक्तो मेरुवा स्यैर्यमाश्रितः ।। ११८ ॥ तस्य सौर्य समालोक्य समतान्मृगराजयः । सेवतेस्म महाव्यान दंष्टि, पक्षि मतंगमाः ॥ ११६ ॥ कर्णयोर्नोडकारम्भः कृतो हारीन राशिभिः। जटाना
अपने चित्तमें सदा भाते रहते थे ॥ ११३॥ सोलह भवनाओंके भानसे उन्होंने संसारसे पार करने Eगला तीर्थ कर गोत्रका बंध कर लिया। कभी एक मास तो कभी दो तीन चार मास पर्यत उप
वास धारण करने के कारण उनका शरीर कृश होता गया ॥ ११४ ॥ जिसमें तीव्र हिमके कारण वृक्षोंके समूहके समूह खाख हो जाते हैं और जो शरीरको तीनसे तोत्र वेदना करने वाला है ऐसे शीत कालमें वे पूज्य मुनिराज नदीके तट पर बैठकर कायोत्स्नग मुद्रा धारण करते थे ॥ ११५ ॥ ग्रीष्मकालमें व योगिराज परमात्माके स्वरूपको ध्याते हुए सूर्यके सन्मुख मुखकर विराजमान होते थे एवं मध्याह्नकालके तापसे दम्ध होने के कारण उनका सारा शरीर काला पड़जाता था ॥ ११६ ।। विजलीकी तड़कनसे जो महाभयंकर जान पड़ता है ऐसे वर्षाकालमें वे मुनिराज वृक्षके तलमें बैट कर उत्तम तयका आचरण करते थे एवं लताओंके समूहसे सारा शरीर उनका ढक जाता था |
११७ ॥ वे मुनिराज राग और द्वेष से सर्वथा परांगमुख थे। मौनी थे निन्द्रा और आलस्य उनके | सपासतक नहीं फटकता था । सदा चैतन्य खरूपके ध्यानमें तत्पर रहते थे एवं जिसप्रकार मेरु पर्वत 2 स्थिर है उसीप्रकार वे भी ध्यानकालमें स्थिर रहते थे ॥ ११८॥ मुनिराज पद्मसेनकी अलौकिक समता देवकर मगगण उनके आस पास किलोल करते थे एवं सिंह बाघ पक्षी और हाथी सदा उनके पास निर्वै र रूपसे रहते थे ॥११६॥ मुनिराज पद्मसेनके कानोंको छोटे छोटे पक्षियोंने अपना
Күкүкү%{%{{{ЖҮЖекелүү жүк