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नित्यत्वं संगो गद्यते जिनः || १६ ॥ यथाशक्ति ददत्येव दान धर्मचिदो नराः। भावतस्तेन सद्युद्धिस्तया पुण्यं ततः ॥ ॥१०॥ स्वसामर्थ्यानुसारेण विधेयं सुनरैस्तपः। अन्यथा व्यंतरा मा भवंति वार्तध्यानतः ॥ १०१॥ येन केनाप्युपाटन
म ति लयं सतां । तदेव तप आचार्यराख्यातं मुक्तिसाथनं ।। १०२ ॥ अकृत्वा मनसो रोधं कुर्वत्युग्रं महत्तपः । देवावासाधिपत्यादि द्धिस्तपां यहि नो शिवः ॥ १०३ ॥ साधूनां सुख प्रश्नो य: स समाधिर्निरूप्यते । धर्मध्यानार्थसचिता स समाधिस्थोच्यते ॥ १०४ यावृत्या जिस उपायसे मनुष्योंका मन पदार्थोंसे हटकर आत्म स्वरुपमें लीन हो आचार्योंने उसी तपको उत्तम तप कहा है और वही तप मोक्षके प्राप्त करानेवाला है किन्तु जो महानुभाव मनका तो निरोध करते नहीं और तप उग्र और महान तपते ही हैं उन्हें उस तपकी फल स्वरूप राज्य आदि विभूतियां तो प्राप्त हो जाती हैं परन्तु वे मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकते। ७ । मुनियोंका सुख प्रश्न अर्थात् किसो कारणसे विघ्नके उपस्थित हो जानेपर उस विघ्नको नाशकर उनके तपकी रक्षा करना साधु समाधि है। अथवा धर्म ध्यानको प्राप्तिके लिये उत्तम चिन्ता आत्म स्वरुपका चिंत
वन करना, साधु समाधि है। ८ । मुनि आदि गुणियोंके किसी कारण दुःख उपस्थित हो जानेपर | KI उत्तमउपायसे उसे दूर करना उनको सेवा चाकरी करना बैयावृत्त्य कहा जाता है वह वैयावृत्स्य आचार्य
उपाध्याय आदि दशप्रकारके साधुओंके भेदसे दश प्रकारका है। इस वैयावृ त्त्यरूप भावनाके भानेसे जिसप्रकार खामीके न रहनेपर सैन्य तितर बितर कर नष्ट हो जाती है उसीप्रकार अधर्म | भी नष्ट हो जाता है । । । छियालिस गुण युक्त और ज्ञानसे सर्वत्र विद्यमान अर्थात् ज्ञानसे लोक और अलोकको जाननेवाले भगवान अहंतकी जो-स्तोत्र आदिसे भक्ति करना हैवह शास्त्रमें अर्ह- IS १ तत्वार्यराजवार्तिको जिनोपदिष्ट निर्ग्रन्ये मोक्षवमनि रुचिः, निःशंकितत्वाद्यष्टांगा दर्शनविशुद्धिः अर्थात महन्त भगवान जिनेन्द्र द्वारा कहे गये निध स्वरूप मोक्षमार्गमें जो रुचि प्रीतिका होना है उसका नाम दर्शनविशुद्धि है और उसके नि:शंकितांग शिकांक्षि तांग आदि अएअंग है। उस दर्शनशी जो विद्धि है। हाल विशुद्धि है यही अर्थ माना है । ग्रन्थकारने यहापर दर्शनसे सत्तालोचन रूप दर्शन ग्रहण किया है वह ठीक नहीं जान पड़ता। पृ० सं० २६२ .
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