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स्त्यजो नणां ॥५३॥ प्रोतिकरमहारण्ये समायातोऽय केवलो । सर्वगुप्ताभिधः सर्पजतुरक्षतत्परः ॥५४॥ तत्प्रभावा महावृक्षाः कुसुमाया फलान्विताः । पैकापट्चरणारावै रेजुरुज्कीणछायकाः॥ ५५ ॥ तदा मालाकरो दृष्ट्वा छायां वृक्षसमुद्यां। व्यतीतर्कन्भिजे चिते किं स्वप्नः शंबरीनुषा ॥५६॥ त्रिचतुरेषु यदा पश्यन् पदेषु गतषांस्तदा । पर्यकासनमारद ध्याना स्तिमिता लोचनं निश्चल बम देनं ध्याय करुणानिधि । सौम्यं च का व्याघ्रादिसेज्यमानं शशिप्रभ ।। ५८ ॥ अद्राक्षीजसा पुज मिहिरं वा तयोनिधि । मोरार्णवे सुखासोनं हसं चंद्रससं नु या ॥ १६ ॥ (त्रिमिचिशेषक) हर्षकंचुकितांगा सन्जगाम नुपसन्निधौ। *
महापुर नगरके समीपमें एक प्रीतिकर नामका महा बन था । एक दिन सर्वगुप्त नामके केवली जोकिसमस्त जीवोंकी रक्षा करनेमें सदा तत्पर रहते थे आकर उसमें विराज गये।भगवान केवलीके! प्रभावसे प्रीतिंकर बनके समस्त बक्ष फूल और फलोंसे लदबदा गये । कोकिला अपनी मधुर ध्वनि । अलापने लगी और भोरे भुनभुनाट शब्द करने लगे इस लिये समस्त वन उस समय अत्यंत सोभायमान दीख पड़ने लगा ॥ ५४५५ ॥ बनकी इस प्रकार वृक्षोंसे जायमान विचित्र शोभा देखकर उस बनका रक्षक माली चकित रह गया और उसके मनमें यह विचार उठने लगा कि
क्या यह स्वप्न है अथवा देव कृत माया जाल है ? तीन चार पैड़ आगे बढ़कर जब उसने देखा। & तो केवली भगवान सर्वगुप्त उसे दीख पड़े वे भगवान पर्यकास (पलौती ) से विराजमान थे।
ब्यान करनेके कारण उनके नेत्र इकटक निश्चल थे। निश्चल रूपसे भगवन ऋषभदेवका वे ध्यान कर रहे थे। दयाके सागर थे। सौम्यमूर्तिके धारक थे। ऋर भी मृग व्याघ्र आदि उनको सेवा करते थे। चंद्रमाके समान उज्ज्वल प्रभाके धारक थे। कातिके पुजवरूप थे । जाज्वल्यमान । सूर्य के समान थे। तपके खजाने थे। एवं क्षीरोदधि समुद्रमें सुखसे बैठनेवाला जिसप्रकार हंस
और चन्द्रमा दीख पड़ता है उसके समान विराजमान थे॥ ५६--५६ ॥ भगवान केवलीको देख कर वनपालका शरीर आनंदसे पुलकित हो गया वह शीघ्र ही राजा पद्मसेनके पास गया एवं छहों ऋतुओंके पुष्प और फल भेंटकर इसप्रकार निबेदन करने लगाः--
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