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EARTYSTERY
मुक्त्वा पुष्पफलवात पुरस्तादधीदिति ॥६० ॥ प्रभो ! प्रीतिकरेऽरण्ये सर्वगुप्तास्यकेवली । समटितः प्रभोः पुण्याईवेन्द्रार्चितपत्कजः ॥ ६ ॥ एनसेनो नराधीशः श्रुत्या सामंतसंयुतः । चचाल बंदित भक्तया मुनि राशीसुतान्वितः ॥६२॥ अहंशरणयोर्येऽय चारपा रुचिचंचुराः। लयीमा समेत्यांशु कुधति साधुवंदना ॥६॥ गत्वा नत्वा प्रपूज्याशु स्वष्टद्रव्यमनोरमः । गद्यपधैः सुतं
स्तुत्वा निविष्टः कलभासने ॥ ६॥ मुनिर्मत्वा नराधीशं भव्यं तं मृदुचेतसं। अचीकथत्पर धर्म तत्वगर्भ कृपामयं ॥५॥ राजन 12 भ्रमत्ययं जीवः संसार दुःखसंकट। अनादिनिधन केन कृतो नास्ते चिदात्मकः ॥६६॥ नरत्वं दुर्लभं लोके तत्रापि सत्कुलंपुनः। । स्वामिन ! आपके पुण्यके उदयसे प्रीतिकर वनमें सर्वगुप्त नामके केवली जिनके कि चरण कमलों - को बड़े बड़े इन्द्र आकर पूजते हैं, आकर विराजे हैं। वनपालकी यह आनंद प्रदान करने वाली बात सुन कर राजा पद्मसेन बड़ा प्रसन्न हुआ और भक्तिपूर्वक मुनिराजकी वंदनाके लिये अनेक सामंत महाराही और नोंके साथ शीर ही हल दिया ठीक भी है जो महानुभाव भगवान अरहंतके चरणों में पूर्णभक्ति रखनेवाले हैं वे अवसर प्राप्त होनेपर उसी भक्ति में लीन होकर भगवान |
अहं तके मार्गके अनुगामी मुनिराजोंकी बंदनाके लिये प्रतिसमय तैयार रहते हैं । यह राजा पद्म| सेन मुनिराजके पास पहुंच कर भक्तिपूर्वक नमस्कार किया । महामनोहर अष्ट द्रव्योंसे
उनकी पूजा की। पूजाके अंतमें गद्य और पद्योंसे उनकी स्तुति की एवं अपने बैठने योग्य स्थान पर अपने योग्य आसनसे बैठ गया ॥ ६०-६४ ॥ पद्मसनकी इसप्रकार पवित्रभक्ति देखकर मुनि
राजने अपने दिव्यज्ञानसे उसे भव्य और सरलस्वभावी समझा इसलिये वे तान्त्रिक और दयापूर्ण लाइसप्रकार धर्मोपदेश देने लगे :
गजन् ! यह संसार नाना प्रकारके दुःखोंसे व्याप्त है उसमें यह जीव सदा यहांसे वहां और |2| वहांसे यहां चक्कर लगाया करता है यह जीव अनादि निधन है-इसके आदि अन्तका कोई निश्चय नहीं। न इसे किसीने बनाया है तथा यह चैतन्य स्वरुप है ॥६५-६६ ॥ इस संसारमें तिथंच आदि पर्यायोंकी अपेक्षा मनुष्यपना अत्यंत दुर्लभ है। यदि दैवयोगसे मनुष्यपना
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