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पत्रपत्र
न्वितपादकः । एवं महाविभूत्या राज्यं शास्ति सुरेंद्रषत् ॥ ५३६ ॥ अथैकदा महावीरो विलाचलमस्त । अवफाण जगत्पूज्यः परमानंददायकः ॥ ५३७ ॥ लेोशानुगता श्रीसर्वातिरम विष्टरं । मस्वोइडसल्पी ं सुर्गति विराजितं ॥ ५३८ ॥ (युग्मं ) पंखसह्नित्तिकविंशतिपदाल । गणैर्द्वादशभिर्युकं मानस्तंभैरलंकृतं ( ५३६ ) सरांसि यत्र राजते पानि पराणि च । ससारसवाणि पद्मरागमयानि च ॥ ५३६ ॥ धेनुशार्थं रमतेऽत्र व्याघ्रशावा मदोत्कटाः । नकुलाः सकला नागेः रंरभ्यते स्वभावतः ॥ ५४० ॥ सुचने सर्वजंतूनां गतं कृतपरस्परं जन्मादिकं त्रिधा वैरं जगन्नाग्रप्रभावतः ॥ ५४१ ॥ नकुलाह्या दिजंतूनां गतं कृतपरस्परं । जम्मादिकं त्रिधा बेरं जगन्नाथ प्रभावतः ॥ ५४२ ॥ निर्जला वापिकाः सर्वा भत्यिंभो भारपूरिताः । ससारसचक्रांगपंकजाभरणायिताः ॥ ५४३ || शुष्कवृक्षा विराजते भ्रमद्मरसंकुलाः । लतांतकुसुमैर्ननाः फलैच एवं दो हजार मुकुटवद्धराजा उनके चरणोंकी सेवा करते थे इसप्रकार वे महाराज श्रेणिक देवोंके | इन्द्रके समान बड़ी बिभ तिसे राज्यका पालन करते थे । ५३२ - ५३६ ॥
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एक दिन विपुलाचल पर्वतके ऊपर समस्त जगतके पूजनीक और परमानंद प्रदान करनेवाले भगवान महावीरका शुभ आगमन हो गया । इंद्रकी आज्ञा से कुबेरने उनके समवसरण की रचना की और उस समवसरणकी भूमि नीलमणिकी बनाई जो कि चारों गतिके जीवोंसे शोभायमान थी ॥ ५३७५३८ ॥ वह समवसरण पांच विशाल उत्तमोत्तम भीतियोंसे शोभायमान था । वीस हजार पेंडियोंका धारक था। बारह कोठे और मानस्तंभोंसे शोभायमान था । उस समवसरण के अन्दर पद्मराग मणि के बने हुये सरोबर थे जो कि उत्तमोत्तम कमलोंसे व्याप्त थे और हंस एवं स्यास आदि पक्षियों के शब्दों से शोभायमान थे । ५३६ - ५४० ॥ उस समय वहां गायोंके बच्च मदसे मत्त भी सिंहों के बच्चोंके लाथ ओर नौले सर्पोंके साथ स्वभावसे ही सानंद कीड़ा करते थे पसमें कोई किसीसे | वैर नहीं निभाता था ॥ ५४१ ॥ तीन जगतके स्वामी भगवान जिनेंद्र के माहात्म्यसे संसारके समस्त जीवोंका वा नौला सर्प आदि समस्त जीवोंका जन्म आदि तीन प्रकारका आपसी वर नष्ट हो | गया था ॥ ५४२--५४३ ॥ जल रहित समस्त बावडिये जलसे भरी हुई थीं। हंस स्यास चकवा