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कापपपपपपपत्रकपरूखकर
म्यहं। बुधरं तं परिक्षाय सचितोऽस्थानराधिपः॥५.१|| एकदा दुर्वला बीय योष' धृत्वा खितस्ततः॥५०२॥ कुस्थित बोक्ष्य | राजानमभयः पृष्टवाम्बिसः! | कुतो दुवैलता देहे त्वदीये स्वर्णसन्निभे ॥ ५०३ ।। तदा प्रोक्त समाफर्ण्य प्रागदीत्सरसं वरः । मा चितां कुछ हे सात ! करिष्येऽदोऽपिलगतः ॥५४॥पवमुक्त्वा गतो रात्रौ श्मसामेऽतिभयंकरे। विलोकमाप प्रेतस्प बङ्गहस्तो महाभुजः ॥ ५०५॥ फणिफूत्कारसंदग्ध अवक्ष परस्परे । ध्यंतरारधसंग्रामहकारावमहाकुले ॥५०६॥ युग्मे । भजनाभाइयो यत्र ददृश्यते दृढद्विजाः । व्याघ्रमल्लकवादिधृतमांसा विधगिताः ॥ ५०७ ।। ज्वल'तोऽनलसंघाता रारटन्त्येव व्यंतरा: । शाकिनी डाकिनी सिद्धो कि
जिससमय कुमार मेघ रानी चेलिनीके गर्भमें था उससमय उसे यह दोहला हुआ कि “मैं dहाथीपर बैठकर वर्षा कालमें आकाशमें घं मू" एवं वह उस दोहलेकी चिंतासे दिनों दिन दुर्बल
होती चली गई। तथा महाराज श्रेणिकके पूछे जानेपर उसने सारा दोहलेका समाचार कह सुनाया . जिससमय महाराज श्रेणिकने यह दोहला सुना उन्होंने उसकी पूर्ति अत्यंत कठिन समझी इसलिये उन्हें बड़ी चिंता हो गई वे चुप होकर घरमें रहने तो लगे परंतु उस तीव्र चिंतासे उनका शरीर से दिनों दिन कृश होता चला गया ॥ ४६६–५०२ ॥ महाराज श्रेणिकको अत्यंत दुःखित देख। कुमार अभयने पूछा-पूज्य पिता ? तुम्हारा शरीर सुवर्णके समान कांतिमान और पुष्ट था सो वह
दुर्बल और फोका क्यों पड़ता चला जाता है । कुमारके ये वचन सुन उत्तरमें महाराज श्रेणिकने वसारा किस्सा कह सुनाया । कुमार अभय बड़े चतुर और गंभीर थे शीघ्र ही उन्होंने मनोहर वचनोंद
में कहा-पिताजी! आप रंचमात्र भी चिंता न करें में बहुत जल्दी इस कामको करूगा बस ऐसा कह कर रातके समय वह विशाल भुजाओंका धारक कुमार हाथमें खड्ग लेकर प्रेतोंके देखनेके लिये उस श्मसान भूमिकी ओर चल दिया जो श्मसान भूमि सपोंके फूत्कारोंकी गर्मी से जले हुए वक्षोंकी धारक थी एवं आपसमें लड़नेवाले व्यंतरोंके महाभयंकर शब्दोंसेव्याप्त थी॥५०३-५०६॥ जिनके दांन 1
ढ़ थे जो अन्जन पर्वतके समान महाकाले थे बाघ भालू और गीध आदिको मासोंको ग्रहण जथे एवं फुगरते थे ऐसे महाभयंकर वहांपर सर्प थे॥ ५०७॥ जगह जगह वहां अग्निकी चितायें
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