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फलं नीत्वा स मालिकः । भूपालं दसयांस्ताव पस्तस्मै ददौ धनं ॥ ४८६ ॥ पुत्राय मोहतो दत्तं तत्कर. तेन मक्षितं । विषेण पतितो
मूमौ वृक्ष छेदयतिस्म सः ॥ ४८७॥ भिषगाकारितो राजा तेन ज्ञाता विषोद्भवा । विक्रिया तत्कलं नीत्वा तदा दर्श विर्ष गतं ॥४८॥ 14 तदा राजा महादुःखं चरीतिस्म मानसे । अहो वृक्षो विषन्नोऽयं व्यर्थ चेदपितो मया ॥४८६ ।। भविमृश्य न कर्तव्यमतो गुणिजनैः
स्फुट । अपरीक्ष्य न वक्तव्यं विमृश्यकारिमिर्नरः ।। ४६० ॥ पुनः श्रोष्टी मुनि प्राइ कथामेको गु प्रभो ! गंगातरेऽतिविख्यातो विश्व | भूतोऽस्ति तापसः ॥ ४६१ ॥ तसटे कुजर दूष्टया वहतं लघुकं स छ । निष्कास्य मळमानीतो वर्धितस्तेन भावतः ।। ४६२ ।। राजा तं कर वह फल उसने अपने पुत्रको खानेके लिये दे दिया ज्यों ही उसने खाया तीव्र जहरके प्रभावसे वह मूर्छित हो जमीनपर गिर गया। राजाको बड़ा कष्ट हुआ शीघ्र ही उसने वृक्ष कटवाकर फिकवा दिया। पुत्रकी चिकित्सा लिये शीन हो वैद्य बुलवाया। उसने वह मूळ विषजन्य जानली । तत्काल उसी आमका फल मगाया और उससे विषकी वेदना दूर करदो ॥ ४८३-४८८ ॥ ओम
फलका यह विचित्र प्रभाव जान राजाको बड़ा कष्ट हुआ एवं वह अपने मनमें इसप्रकार क्लेश IS करने लगा। हाय विषको दूर करने वाला वृक्ष मैंने वृथा खोद डाला।गुणोजनोंको विना विचारे कोई सभी कार्य नहीं करना चाहिये और जो मनुष्य विचार शील हैं उन्हें किसी बातको बिना जांच किये
कुछ कहना भी नहीं चाहिये । ४८६-४६०॥ मुनिराजकी यह कथा सुन फिर भी सेठ जिनदत्तने यह कथा कहनी प्रारंभ कर दी
· गंगा नदीके तटपर एक विश्वभूत नामका तपखी रहता था। एक दिन एक हाथीका बच्चा नदीमें बहता चला जाता था। दयालु तपसीने उसे निकाला और अपने मटमें लाकर प्रेमपूर्वक पालन पोषण कर बढ़ाया। जब वह बढ़कर सवारीके योग्य होगया तब उसे नगरका राजा ले आया 37
और उसे शिक्षित करनेके लियेअंकुशसे वश करने लगा। हाथीको यह बात दुःखदायी जान पड़ी। बह तत्काल भागकर गंगाके तटपर आ गया। तपस्वीने उसे वहां न रहने दिया। दुष्ट हाथीने क्रोध कर अपने पोपण करने वाले तपस्खीको मार डाला। भगवन् ! कृपाकर बताइये हाथीने जो तपसीके
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