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'न्नरीकृतमस्वनाः || ५०८ ॥ तमिस्रा तामसी या स्वालोका प्रवर्तते। भक्षयित्वाखिलं विश्वं तारिकास्थिविभूषणा ।। ५०६ ॥ रात्रि धू कारसंरावा पर्वतस्तनमंडिता । ज्वथच्छदाना नूनं राक्षसीव विराजते ॥ ११० ॥ ( युग्मं ) ई कानने विद्वानभयो भीतिवर्जितः ।
दीपाकुले वटे वैकं विभीकं दृष्टवाक्षरं ॥ ५११ ॥ गत्वा पप्रच्छ कोऽसि त्वं कस्मात्त्वं च समादितः । मालया अपसि किं भो कि नाम दक्षु मे ॥ ५१ ॥ अरीरणइटस्थस्तं शृणु भ्रातर्निगद्यते । विजयार्धोत्तरध्रेण्यां गगनप्रियपत्तनं ॥ ५१३ ॥ तत्राहं वायुवेगारूपो राजे जलतीं थीं । व्यंतर जातिके भूत पिशाच आदि देव जोरसे कोलाहल करते थे शाकिनी डाकिनी भूतिनी और किन्नरियों के भयंकर शब्द होते थे । ५०८ ॥ उससमय उन श्मसान भूमिमें विपुल अन्धकारको धारण करनेवाली रात्रि सां सां शब्द कर रही थी। चांदनीका प्रकाश एकदम रुका हुआ था इसलिये वह रात्रि उससमय ऐसी जान पड़ती थी मानो इसने समस्त जगत्को भक्षण कर लिया है और यह तारा रूपी हड्डियोंके भ षणोंको धारण किए हैं। वह श्मसानभ मि साक्षात् राक्षसी थी क्योंकि राक्षसी जिसप्रकार धुकार शब्द करती है उसीप्रकार वह श्मसान भूमि भी धुंकार शब्दोंसे व्याप्त थी। राक्षसीके जिसप्रकार स्तन होते हैं। श्मसान भूमिके भी पर्वत रूपी स्तन विद्यमान थे । एवं राक्षसी जिसप्रकार मुर्दोंको खाने वाली होती है उसीप्रकार वह श्मसान भूमि भी मुर्दों को भस्म करनेवाली थी। इसप्रकारके भयंकर वनमें निर्भीक एवं चतुर कुमार अभय एक घट वृक्षकी ओर चला जिसपर कि एक दीपक टिमटिमा रहा था एवं वहां पर एक निर्भीक मनुष्य दीख पड़ा। कुमार अभय शीघ्र ही उसके पास पहुंचा एवं इसप्रकार बात चीत करने लगा। भाई ! तुम कौन हो ? कहांसे यहांपर आये हो ? यह जो हाथमें माला लिये बैठे हो इससे क्या अपना चाहते हो और तुम्हारा नाम क्या है ? मुझे शीघ्र कहो ।। ५०६ – ५०१२ | वटवृक्ष पर बैठा हुआ पुरुष कहने लगा- सुनो भाई ! मैं अपना सारा वृत्तांत सुनाता हूँ तुम ध्यान पूर्वक सुनो
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