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चमखाणितेन पापोऽसौ कंवलानां हि रंजन । कुरुते कामसूत्रापां रंजन च विशेषतः ॥ ४५७ ॥ लक्ष्यमूल्याभिध तैलं कृत्वा मे देहजो व्यथां । २ निवारयत्यसौ दुःखात्तत्र तिष्ठामि भीयुता ॥ ४५८ ॥ तदैव चिंतितं स्वांते गृहे त्वं सोदुमक्षमा । एवं दुखं सहेबाहं विचित्रा कर्मणा
गतिः॥४५॥ अथैव धनदेयाख्यो भ्रात,#षितः कृत। विशाल सतिना पारासुरभूपसमीपर्क ॥ ४६०॥ तदा मां वीक्ष्य नीत्वैध गृहमागत्य सत्वरं । पश्चान्मज्जनको भूगमदाछीसोमशर्मणे ॥ ४६१ ॥ एकदा मुनिमासाद्य गृहीतं कोपसद्वतं । भतः करोमि नो को ।
भूरिदुःखपुदायकः ॥ ४६२ ॥ तैलं नीत्वा गतो गेहे जिनदत्तो दयापरः । तैलाभ्यंगेन जातोऽह निध्याधिर्मगधाधिप ! ॥ ४६३।। तदा प्रावट नाखवाता था हर एक पक्ष में मेरी नसोंसे रक्त निकलता था। उस रक्तसे कंबलोंको रंगता था एवं
विशेषकर रेशमको रंगता था। जिससमय नसोंसे रक्त निकलता था उस समय मुझे भयंकर कष्ट होता था उसके पास यही लानामूल नामका तेल था इसलिये मेरे शरीरके कष्टको वह दूर करता था। मैं भी परवश हो सदा भयभीत होकर उसके घर रहती थी। उससमय प्रतिक्षणा मुझे इस बातका विचार उठता था कि घरमें मैं "तु" शब्द भी नहीं सह सकती थी और यहां में यह
भयंकर कष्ट भोग रही हूं। हा कर्मोंकी गति विचित्र है ॥ ४५६-४५६ ॥ sil मेरे भाईका नाम धनदेव है । विशालापुरीके खामीने किसी कार्यके लये उसे पारासर राजाके पास भेजा दैवयोगसे वहांपर में रहती थी उसी मार्गसे वह निकला । मैं उसे दीख पड़ी। मुझे वह घर ले आया और मेरे पिताने मेरे पति सोमशर्माको बुलाकर दे दी॥ ४६०। ४६१ ॥ एकदिन मुनिराजका पधारना यहां पर होगया और मैंने कोपके त्यागका व्रत ले लिया । भाई जिनदत्त ।। क्रोधको इसप्रकार दुःखदायी जान मैंने सर्वथा उसका त्याग कर दिया है ॥४६२॥ रमणी तुकारी -
की यह बात सुन दयालु जिनदत्त तेल. लेकर अपने घर लौट आया और हे राजन् श्रेणिक । उस koतेलके लगानेसे मैं नीरोग हो गया ।। ४६३ ॥ उससमय वर्षाकाल चौमासा लग गया था। चौमासे 7
में मैं वहीं टहर गया। जिनदत्तका पुत्र पक्का ज्वारी था इसलिये एकदिन अच्छी तरह सोच विचार
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