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समस्या विहिता तथा ॥ ३६६ ॥ त्रिपुत्रास्तु लेनार्थं मम मंदिरे | अंगुलिद्विषयं तेऽपि दर्शयित्वा वनं ययुः ॥ ३७० ॥ गुणसागरनामानं दृष्ट्वा यातं तथाऽकरोत् । प्रतिपद्य मुनिस्तस्थौ राजप्रक्षालितांधियः || ३७२ ॥ मध्ये गृहं यदा योगी गत्वा तिष्ठति भावतः । ज्ञात्वावचिचलाश्चर्मास्थ्यशुद्धिं गतवांस्तदा ॥ ३७२ ॥ अथाचख्यौ नृपो राहीं ते त्रयो हि कथं गताः । पार्थमागताः पूर्व हि त्वं तच्च कारणं ॥ ३७३॥ अत्रीवददा राही नो वेशांति नराधिप। आवां यावश्च पृच्छायो वाहनाज्जग्मतुर्वनं ॥ ३७४॥ धर्मघोषमुनिं किया कि मनोप्ति वचनगुप्ति और कायगुप्ति तीनों गुप्तियोंके धारक मनिराज मेरे मंदिर में आहारके लिये ठहरे। तीनों मुनियोंमें तीनों गुतियोंका धारक एक भी मुनि न था इसलिये वे अपनी दो २ अङ्गलियां दिखा कर वनको चले गये । उनके बाद एक गुणसागर नामके मुनिराज आये। रानीने उनको भी तीन अङ्गली उठाकर अपने हृदयका भाव प्रकट किया, वे मुनि तीनों गुतियों के धारक थे एवं तीन गुप्तिका धारक नियमसे अवधिज्ञानी होता है इसलिये
अज्ञानी भी थे बस रानीके बचनानुसार उन्होंने अपनेको उपर्युक्त समझा। वे खड़े रहग ये राजाने उनके चरणों का प्रचाल किया । घरके मध्यभागमें आहारके लिये वे भावपूर्वक जाकर स्थित ही हुए थे कि उन्होंने अवधिज्ञानकी ओर अपना उपयोग लगाया एवं अवधिज्ञान के बलसे चाम हड्डी आदि पवित्र पदार्थों को उन्होंने जान लिया । वे अपना अन्तराय समझ वनको ओर चले गये । गुणसागरके विषयमें तो राजाने कुछ भी नहीं कहा किंतु उनसे पहिले जो तीन मुनिराज आहार बिना ही लिये वन चले गए उनके विषयमें यह पूछा
प्रिय रानी ! तीन मुनि जो आहार के लिए राजमंदिरमें आये थे वे बिना ही आहार के राज मंदिरसे क्यों लौट गए ? उत्तरमें रानीने कहा- प्राणनाथ ! मैं भी कुछ नहीं समझ सकी चली अपन दोनों उनके पास चलें और उनसे विना आहार लिए लौट आनेका कारण पूछें। बस दोनों ही सवारियोंपर चढ़कर वनकी ओर चल दिये || ३६६ -- ३७४ ॥ सबसे पहिले वे धर्मघोष
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