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सहायक पपपपपर
स्वामिना जिनपालेनाभयं दत्तं तवैव भो .२॥ चंडः प्राहेति है कांते! मुनीनां द्विषता कुतः। रागो हि विद्यते कुत्र साम्यत्वात त्यरूपता ४.३॥ यद्यवं विद्यते चिचे बहिनं गतौ तदा । जिनपं वीक्ष्य नत्वं पप्रच्छेति मनोगतं ॥ ४५ ॥ नाथ! योगिनां कस्याभयचिंतनमादरात् । कस्य चिन्नाशनत्वं हि युक्त प्रोक्त जिनागमे ॥ ४०॥ मुनियोपं समाश्रित्य स्थितो ध्याने यदा तदा । कांता प्राह न तयुक्त परंतु गगनध्वनिः॥४०६ ॥ भ्रांतिं चित्तस्थितां तो च विनाश्य सदने गती । अहं तवालये राजनागतो भोजनकृते ॥४०॥ सदोक्कमिति चेलिन्या त्रिगुप्तिर्भवतां यदि । तिष्ठतु चान्यथा नैव तदभावान्न स्थिता घयं ॥४०॥ त्रिगुप्तीनां मुनीनां हि भव. किसीसे राग कर सकते हैं। तुम जो कह रही हो यदि वह बात सत्य ही है तो चलो अपने मुनि राजके पास चलें और यथार्थ बात उनसे पूछ बस ये दोनों मुझ जिनपालको वंदने के लिये चल
दिय । मुझे देख कर भक्तिपूर्वक नमस्कार किया एवं अपने हृदयका भाव राजा चंदप्रद्योतन इस *प्रकार व्यक्त करने लगा
भगवन् । योगी लोग किसीका तो अभय चितवन करें और किसीका नाश चितवन करें क्या यह वात जैनसिद्धांतमें ठोक मानी गई है ? मैंने इस बातका कोई उत्तर नहीं दिया। मौन धारण कर ध्यान करने लगा। रानी मृगांकाने कुछ भी उत्तर न देते जब मुझे ध्यान लीन देखा तो उसने राजा चंडप्रद्योतनसे कहा-नाथ ! मुनिराजने अभय दानका सूचक वचन नहीं कहा था किंतु उस प्रकारकी आकाश ध्वनि हुई थी। रमणी मृगांकाके ऐसे वचन सुन दोनोंकी भ्रांति मिट
ई और वे दोनों अपने राजमहल लौट आये। मैं भी उस उपसगसे अपनेको मुक्त जान राज - मंदिग्में आहारके लिये गया। रानी चेलिनीने तीन अङ्ग ली उठाकर यह बात प्रगट की थी कि--
यदि आप तोन गुप्तियोंके धारक हों तो मेरे मन्दिरमें आहारके लिये ठहरे बीच नहीं। राजन् । ke हमारे तीन गुप्तियां थीं नहीं इसलिये हम राजमन्दिरमें आहारके लिये स्थित न हो सके क्योंकि
यह नियम है जो मुनि तीन गुप्तियोंके धारक होते हैं वे नियमसे अवधिज्ञानी होते हैं और उससे