________________
प
. प्रायपYahasy
जयत्वं भाविता तब थनि मुनर्वचो मत्वा सत्यं मौनीश्वरं वचः। इति कटवा गतो गेहे रणरंगे समागतः || ३६६॥ चंडस्तदा समाकण्यं जयत्वं तस्य भूपतः । जेनं मत्वा यदायाति स्वगृहेषु रणान्वितः ॥ ३७॥ प्रजापालामियो राजा प्रेषयामास सदान् । ते गत्वा प्रोचरित्येवं कथं यासि रणाद्विना ॥ ३६. चंडयोसनोऽवादीचा त्या तेषां यचः स्फुट। जैना मे यांधचा मित्र कर्थ योयु. ध्यते मया ॥ ३६॥ गत्वान्यवेदयन्वीराथण्डप्रद्योतनोदितं। तथा श्रुत्वा ददौ प्रीत्या मृगाशी मारमंजरी ॥ ४०॥ एकदा तो व रेमाते तदा चंडो जगाद भो। कांते ! ते पितरं जैन मत्वा मुक्तो रणांगणे ॥ ४० ॥ श्रुत्वा मृगाक्षिका प्राह शृणु त्वं नाथ ! मद्वचः । रणभूमिमें आ धमका ॥ ३६३-६६६॥ राजा चंडप्रद्योतनको किसी कारणसे यह भ्यास गई कि राजा प्रजापालका ही विजय है इसलिये वह उसे जैनी मान अपने घर जाने लगा। रणके लिये सर्वथा तयार राजा प्रजापालने अपने कुछ सुभट राजा चंडप्रद्योतनके पास भेजे और वे कहने लगे | कि भाई रणको छोड़कर तुम क्यों जा रहे हो ? उत्तरमें राजा चंडप्रद्योतनने गंभोर वचनोंमें कहासमस्त जैनी मेरे बंधु हैं और मित्र हैं मुझे उनके साथ युद्ध नहीं करना चाहिये । राजा प्रजापालके सुभटोंने चंडप्रद्योतनका संदेशा उससे जाकर कह दिया । चंडप्रद्योतनके ये वचन सुन राजा प्रजापाल प्रसन्न हो गया एवं कामकी मन्जरी स्वरूप अपनी मृगनयनी कन्याका उसके साथ विवाह कर
दिया ॥ ३६७-४००॥ PA रमणी मृगांका और चंडप्रद्योतन एक दिन आपसमें रमण क्रीड़ा कर रहे थे उससमय चंड
प्रद्योतनने कहा--प्रिये तुम्हारा पिता जैनी था इसलिये मैंने उसे रणसंग्राममें छोड़ दिया था यदि कोई दूसरा होता तो मैं उसे नहीं क्षमा करता । अपने स्वामीके ऐसे वचन सुन रमणी मृगांकाने - कहा--प्राणनाथ ! मुनिराज जिनपालने उन्हें अभय दान दिया था इसलिये वे आपसे नहीं जीते / जा सके। अपनी रानीके ऐसे बचन सुन चंडप्रद्योतनको बडा आश्चर्य हुआ वह कहने लगा--मुनियोंकी तो शत्रु मित्रमें समान वृत्ति रहती है इसलिये न तो वे किसीसे द्वेष कर सकते हैं और न
ETEST पर