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गतः । पुनः राशो गजो दुष्टः स्तंभमुत्क्षप्य निर्ययो। ३५७ ॥ तदा सह निशांतेन राज्ञा नावगतो मुनिः। द्विपक्षांतं तपो नीत्वा पुनः कांतारमाप सः॥३५८ ॥ तृतीयपारणायां स क्षीणमात्रो इटान्वितः । राजधान्यां तदा दाहो बभूव लयकालबत ॥ ३५६ ।। तदा भूपा। दिभिर्नेव द्रुष्टः श्रीमुनिपुङ्गवः । प्रत्यू वै यदा कृत्वा याति लोकास्तदा जगुः ॥३६०॥ अयं राजा महापापी भोजनं नैव यच्छति । दाता'
वारयत्येव थत्वा राशे चुकोप सः ॥ १६१॥ क्रोधस्खलितपाद्योगी पतद मौ निदानकः । अत्रोकरमहादुधं हन्मीक्षा भवाम्यहं ।। 5 ३६२ ॥ मृत्वा व्यंतरतां यातो धिनिदानमनर्थः। तमायेन मृत राजा तद्दुःखात्तापसोऽजनि ॥३६३॥ कुनपःस्पः पुरो जन ततश्च्यु
गला पने संपलेका स्वकालोड़ा। सारे महल और नगरमें खलबली पड़ गई वस उसदिन भी मय अपने रणबासके राजा मुनिराजको न देख सका एवं दो पक्षोंका और भी आहारका नियम लेकर वे मुनिराज वनको चले गये ॥ ३५७--३५८ ।। तीन मासके उपवास के बाद वे पुनः
पारणाके लिये नगरमें आये। आहारके बिना उस समय उनका शरीर एकदम नोण हो गया था of | और बड़ी बड़ी जटायें बढ़ गई थीं परंतु जिससमय मुनिराजने नगरमें प्रवेश किया उसो समय प्रलय कालके समान नगरमें आग लग गई इसलिये किसी राजाआदिको दृष्टि मुनिराजपर न पड़ी। वे अपना अंतराय समझ वनको लौट दिये। उनकी दुःखदायी क्षीण दशा देख कुछ लोग
आपसमें कहने लगे___ यह राजा बड़ा भारो पापी है न तो स्वयं मुनिराजको भोजन देता है और यदि काई अन्य व दाता देता है तो उसे देने नहीं देता। बस पुरवासी लोगोंके ये शब्द सुन मुनिराज अशभ कम के उदयसे राजापर आग बबूला हो गये । चलते चलते तीव्र क्रोधसे उनके पैर लटपटाने लगे। असमर्थतासे जमीनपर गिर गये एवं तीव्र क्रोधसे अज्ञानी बन यह महादुष्ट निदान किया कि मैं आगे ऐसा हों जो इसदुष्टको मार सक॥ ३५१-३६२ ॥ निदानके तीन पापसे व व्यंतर जातिके देव हुए। हा इसप्रकारके अनर्थके कारण निदानके लिये धिक्कार है। राजा सुमित्र भी मुनि
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