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मित्रां हि निजं मित्रमदृष्ट्वा तद्गृहं गतः । विलोकनाय श्रुत्वा तं दीक्षितं दुःखयानभूत् ॥ ३४६ ॥ एकदा स्वपने राजा समायातं मुनीश्वरं । श्रुत्वा जगाम संप्रीत्या वंदनाय बहुश्रुतं ॥ ३४७ ॥ दित्वा प्राह हे मित्र ! त्यहि सदनं प्रति । अर्धराज्यं ददामोति श्रुत्या प्राह मुनिः ॥ ३४८ ॥ तपसा प्राप्यते राज्यं स्वर्गे दिव्यं शिवं सुखं । रत्याभभामिनीवृदं दुष्प्राप्यं तेन किं भवेत् ॥ ३४६ ॥ श्रुत्वा मौनीयर वाक्यमवोचत्सादरादिदं । नागच्छसि ॥ ३५९ ॥ यदि मे मंदिरे नूनं भोजनाय सुखेन च था। दिगंबरी दीना ले लेने के कारण जब सुमित्रका सुषं से मिलाप न हो सका तो वह स्नेहसे प्रेरित हो सुप को देखने के लिये उसके घर गया परंतु वहां पर उसे मालम हुआ कि वह मुनि हो गया है इसलिये वह बहुत दुःख मानने लगा ॥ ३४६ ॥ एक दिन राजा सुमित्रने सुनी किसूरपुर के वन में मुनिराज सुषं पधारे हैं, वह बड़े प्रेमसे बहुश्रुतके जानकार मुनिराज सुषेणकी वंदना के लिये चल दिया ॥ ३४७ ॥ पास जाकर भक्तिपूर्वक मुनिराजको प्रणाम किया एवं स्नेहसे विह्वल हो इसप्रकार कहने लगा
हे मित्र ! तुम घर चलो। मैं तुम्हें अपना आधा राज्य दूंगा -- किसी बातका तुम्हें क्लेश न होगा। उत्तर में मुनिराजने कहा- राजन् ! संसार में तप सर्वोत्तम पदार्थ है, इसीसे राज्य प्राप्त होता है इससे स्वर्ग इच्छानुसार द्रव्य मोन एवं संसार के अन्य सुख भी प्राप्त होते हैं । रतिके समान सुन्दरी स्त्रियां भी इससे प्राप्त होती हैं विशेष क्या. संसारमें कोई भी ऐसी दुर्लभ वस्तु नहीं जो तपसे न मिलती हो ॥ ३४८ ३४६ ॥ मुनिराज के ऐसे गंभीर वचन सुन राजा मित्र से अन्य उत्तर तो न बना किंतु वडे आदरसे वह यह कहने लगा- महाराज ! संसारको बढ़ाने वाले घरमें आनेकी यदि आपकी इच्छा नहीं है तो आप सुख पूर्वक भोजन के लिये मेरे | मंदिर में तो अवश्य पधारें इसका उत्तर भी मुनिराजने यह दिया- यदि मैं इसरूपसे भी तुम्हारे मंदिर में भोजन के लिये आऊंगा तो अनुमोदना दोष लगेगा क्योंकि करना कराना और अनु
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