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।। ३३३ ॥ द्वाभ्यामदायि सद्धर्मबृद्धिः श्रीमुनिनाऽमुना । तदा राजा निजे चित्ते दुःखं चके महोत्कटं ।। ३५४ ॥ अहो मया कृतं नूनं पार्य श्रीमुनिघातर्ज । सदाऽवोचदूषीराजन् ! मा दुःख कुरु चेतसि ॥ ३३५ ॥ आवश्यक हि भोकल्यं कृतं कर्म शुभाशुभं ॥३३६॥ (षट्पदी) श्रुत्वा राजा तदाऽवोचत् चेलिनी प्राणवलगा हे गमेऽयं कथं वेद ममांतर्गतभाधनां ॥३३७॥ अबीमणत्तदा राशी का कथास्य लयस्य | भावना भाते रहते थे। जिससमय “तुम्हागे धर्मवृद्धिहो" यह मुनिराजने आशीर्वाद दिया-अपनी
भक्त रानी और द्वषो राजामें कुछ भी भेदभाव न रख दोनोंको समान रूपसे समझा। | उससमय मुनिराजको यह लोकोत्तर क्षमा देखकर महाराज श्रेणिक बड़े लज्जित हुए एवं अपने | मनमें उग्र दुःख करने लगे। ३३४ ॥ मुनिराजके शिष्ट वर्तावसे वे मन ही मन यह विचारने लगे।
हाय मैंने श्रीमुनिराजके मारनेका घोर पाप किया है, मुझे धिक्कार है। मुनिराज दिव्य ज्ञानी थे । NI अपने ज्ञानसे उन्होंने राजाके मनकी बात जान ली इसलिये वे यही कहने लगे कि--राजन् ! तुम्हें
अपने चित्तमें किसी प्रकारका दुःख नहीं करना चाहिये जो शुभ और अशुभ कर्म किया गया है ।
उसका अच्छा बुरा फल अवश्य भोगना पड़ता है।॥ ३३६ ॥ मुनिराजके ये अचरजभरे वचन सुन । ka महाराज श्रेणिकने चलिनीसे कहा--प्रिये । मेरे मनके भीतरकी बातमुनिराजने कैसे पहिचान लो ? |
उत्तरमें चोलिनीने कहा- प्राणनाथ। इस बात के लिये आप क्या अचरज कर रहे हैं मुनिराजने जो [आपके मनका भाव पहिचान लिया यह तो बहुत ही तुच्छ वात है यदि आप पूछना चाहें तो - अपने पूर्वभवोंका भी हाल पूछ सकते हैं । लिनीकी यह बात सुनकर महाराज श्रेणिकने अपने | | पूर्वभवोंकी पूंछने की मुनिराजसे, लालसा प्रगट की। मुनिराज भी अपनी गंभीर ध्वनिसे इस
प्रकार कहने लगे ... ..... . ......... .. . .. ...... इसी ज़रद्वीपके भरतक्षत्र संबंधी आर्यखंडमें एक सरकांत नामका देश है । इस सरकांत देश में एक सूरपुर नामका नगर है उसका स्वामीराजा मित्र था। उसकी पटरानीका नाम भामिनी
पहाणपY सहायक