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दयाभाषाच्छु तं तथा हात्वा तस्यै ददौ मुझ । परीक्ष्यान्यायकर्तार मत्वा न्याय ददौ तुजे ॥ २३३ । अधैकदामरावत्यां कुटुंबी बलभ
वाक् । प्रिया तस्यास्ति भद्राख्या पीनस्थ लपयोधरा ॥ २३४ ॥ तत्र पुर्या वसत्येष अत्रियो हि वसंतकः । भद्रा हृष्ट्वैकदा कामवाण | ० घ्यामोहितोऽभवत् ॥ २३५ ॥ दूत्यानुरकता नीत्या रेमे साकं मुदा तया । एकदा सा वनं पाता तत्र दृष्टो मुनीश्वरः ॥ २३६ ॥ भद्राः | । उस बालकको दयालु बसुमित्राका ही पुत्र जान उसे हो सुपुर्द कर दिया और अन्याय करनेवाली Cl
बसु दत्ताको अपराधके अनुकूल दंड दिया इसप्रकार पुत्रकेलिये जो झगड़ा था न्यायकर कुमारने उसका निबटेरा कर दिया ॥ २३३ ॥
मगध देशकी अमरावती नगरीमें एक बलभद्र नामका कुटुम्बी रहता था। उसकी स्त्रीका नाम भद्रा था जो कि बलभद्रको प्राणोंसे भी अधिक प्यारी थी और पीन किंतु स्थूल स्तनोंसे शोभायke मान थी। उसी नगरीमें एक वसंत नामका क्षत्रिय पुरुष भी रहता था एक दिन रमणी भद्रा उस
के देखनेमें आगई जिससे वह उसके सौंदर्यपर मुग्ध हो कामबाणोंसे व्याकुल हो गया ।। २३४– १२३५ ॥ शीघ्र ही उसने भनाके पास अपनी दुती भेजी। भद्रा भी वसंत पर पूर्ण आसक्त हो गई
जिससे वसंत मनमानी उसके साथ आनंद रमण क्रीडा करने लगा। एक दिन भद्राको वाहिर जंगलमें जानेका अवसर मिल गया वह वनमें गइ । दैवयोगसे एक मुनिराजसे उसकी भेंट हो गई । वे मुनिराज परम सुन्दर थे उन्हें देख भद्राका चित्त चलित हो गया एवं कामको सूचित
करने वाले वाक्योंमें वह इसप्रकार मुनिराजसे कहने लगीतु प्रिय साधो ! तुम सौंदर्य और कलाओंके स्थान हो तुम्हें स्त्रियोंकी अभिलाषा पूरण करनी |
चाहिये। तुम जो यह ध्यान व्रत आचरण कर रहे हो यह तुम्हारा व्यर्थ है इसमें कुछ भी आनंद |* - नहीं प्राप्त हो सकता तुम्हें विषय भोगोंको आस्वादना चाहिये । भद्राके ये कड़वे वचन सुन उत्तर
में आत्मध्यानी मुनिराजने कहा
अपचयपत्र
КүкүKKKKKKKKKKKKKKKKKeker