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नामदत्तिका । पप्रच्छ कारणं मातः? कर्थ रोविधि संप्रति । ३१६ ॥ सुतामवीववन्माता त्वं मुगाक्षी घनस्तनी । भर्ता ते सर्परूपोऽतो रोमीति रात्रिपानने ! ॥३१७॥ सुसेत्यूचे च हे अंब ! मा तुम्नं कुरु सर्वथा । रात्रौ भूत्वा नरः सोऽपि मुक्त्वा सर्पकलेवरं ॥३१८॥ रम. | तेऽमा मया शुभ्र प्रात हाति तद्वपुः । एतच्छु त्याऽवदन्माता प्रेषितव्योऽस्तु पुद्गलः ॥ ३१६ ।। ( युग्मं ) एकदा समयं प्राप्य प्रषितः पुद्गलस्तया । अनन्या ज्यालितः सोऽपि नरो भूत्वा स्थितस्तदा ॥ ३२० ॥ एवं शात्वा महाराजन् ! मया च ज्वालितं गृहं । अखिदत्ता अपनी पुत्रीके दुःखका स्मरण कर रो रही थी कि उसपर नागदत्ताकी दृष्टि जा पड़ी एवं अपनी माताको रोती देखकर वह इसप्रकार कहने लगी___मा ! विना कारण तू इससमय क्यों रो रही है ? उत्तरमें अछिदत्ताने कहा-पुत्री ! तृ तोमृग - लोचनी और कठिन स्तनोंसे शोभायमान परम सुन्दरी है और तुझे पति सर्पके अकारका मिला
है। प्रियपुत्री ! मैं इसी दुःखका स्मरण कर रो रही हूँ ॥३१६-३१७ ॥ माताके ये वचन सुन नागदत्ताने कहा-मा ! तू किसी प्रकारका दुःख मत कर, मेरा पति रातमें सर्पका शरीर छोड़कर
मनुष्यका रूप धारण कर लेता है। समस्त रात्रि मनुष्य रूपसे ही मेरे साथ रमण क्रिया करता है IS कितु जब प्रातः काल होता है उस समय पुनः सर्पका शरीर धारण कर लेता है और सारे दिन - साकारसे रहता है । पुत्रीके ये वचन सुन अहिदत्ताने कहा यदि यह बात सत्य है तब वह सर्पका
शरीर मेरे पास भेज देना जिससे मुझे भी निश्चय हो जाय । नागदत्ताने अपनी माकी बात मान लाली । अवसर पाकर एक दिन वह सर्पका शरीर उसने अपनी माके पास भेज दिया। उसकी माने 2 उसे अग्निमें जला दिया बस उस दिनसे वह नागदत्ताका पति मनुष्यरूपसे ही रह गया। प्रिय IA महाराज । यही समझ कर मैंने बौद्ध सन्यासियोंके मठमें आग लगवा दी थी क्योंकि मुझे निश्चय
हो गया था कि समस्त बौद्ध साधु तो सिद्ध होकर मोक्षमें जा बिराजे हैं। ये जो इनके कलेवर रह गये हैं वे व्यर्थ पड़े हैं। इनका जला देना ही अच्छा अन्यथा फिर उन्हें आकर इन कलेवरों
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