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च यशास्विनी । यशस्विनी सुविख्याता तस्याभून्मृगलोचना ॥ ३१ ॥ श्रेष्ठी सागरदत्तास्य आस्ते सगरबद्धनी | गंभीरो गुणवान् । वीयों राजमान्यो विदांवरः ।। ३१३ ॥ भार्या वसुमती तस्य तन्मन:पद्म द्रिका । चंद्रवपत्रा विचारशा तन्वंगी कठिनातनी ॥ ३२ ॥ तत्रैवास्ते धनी चान्यः श्रेष्ठी श्रेष्ठक्रियामणी । समुददत्त इत्याख्योः धर्मकार्यविदांचरः । अछिदत्ताभिधा रामा वर्तते बिमलानना ॥ ३१२॥ (पटपदी) ताभ्यामेपा कृता नूनं प्रतिक्षा मम चेत्सुतः । तचैव पुत्रिका भावी भाविनी या यदा तदा । तयोः पाणिग्रहो ननं भविता नात्र संशयः ॥ ३१३ । (षट्पदी) एवं गते कियरकाले सिंधुदत्तात्सुतोऽजनि । वसुमत्याः सुमित्राख्यः सर्परूपधरो हि सः॥ ३१४॥ सुता समुद्रदत्ताश्च तस्या नागार्पणाऽभवत् । सा च रूपकलारंभा तयोः पाणिग्रहः कृतः ॥३१५॥ एकदा मातरं दृष्ट्वा रूदतों
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जो कि सागरके समान अपरिमित वलका वानीशा गंभीर था, पराक्रमी था एवं राज्यमान्य और विद्वानोंमें श्रेष्ठ था ॥ ३१० ॥ उसकी स्त्रीका नाम वसुमती था और वह सेठ सागरदत्तके मनरूपी ( रात्रिविकासी) कमलके प्रसन्न करनेमें चांदनी सरीखी थी। चन्द्रमाके समान मुख वाली थी। विचारशील तन्वंगी और कठिन स्तनोंसे शोभायमान थी ॥३११॥ उसी नगरी में एक Pा सुभद्रदत्त नामका और भी सेठ निवास करता था जो कि उत्तम क्रियाओंके करनेमें प्रधान था
और धर्मकार्योंके करने में अत्यंत बुद्धिमान समझा जाता था। उसकी स्त्रीका नाम अछिदत्ता था जोत कि निर्मल मुखसे शोभायमान थी ॥ ३१२ ॥ दोनों सेठोंने आपसमें प्रतिज्ञा करली थी कि यदि
मेरे पुत्र होगा और तुम्हारे पुत्री होगीअथवा मेरे पुत्री होगी और तुम्हारे पुत्र होगा तो उन दोनों si का आपसमें विवाह कर दिया जायगा इसमें कोई संदेह नहीं । इस प्रतिज्ञाके बाद बहुत कालके | वीत जानेपर सेठ सागरदत्त के सेठानी सुमित्रासे एक पुत्र हुआ जिसका नाम सुमित्र रक्खा गया
और उसका स्वरूप सर्प सरीखा था। तथा सेट समुद्रदत्त सेठानीअछिदत्तासे उत्पन्न एक पुत्री हुई जो कि रूप और कलाकी खानि थी और नागदत्ता उसका नाम था। प्रतिज्ञाके अनुसार उन दोनोंका विवाह हो गया और वे अपने भाग्यानुसार रहने लगे ॥ ३१३-३१५ ॥ नागदत्ताकी मा
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