________________
- स्व और पर का निश्वयात्मक बोधक ही सच्चा जान है। को उपशंभ श्रेणी कहते हैं । इन क्षपर और उपशम श्रेणियों का काल दोष के प्रभाव से यहां इस समय साधन नहीं हो सकता-५१
व्यवहार प्राणायाम (दोहा)-अह निश ध्यान अभ्यास थी, मन थिरता जो होय ।
तो अनुभव लव आज फुनि, पावे विरला कोय ।। ५२ ॥ . निज अनुभव लवलेश थी, कठिन कर्म होय नाश ।
अल्प भवे भवि ते लहे, अविचल-पुर को वास ॥ ५३ ।। . अर्थ-रात दिन ध्यान के अभ्यास से यदि मन की स्थिरता हो जाय तो आज भी किंचित अनुभव की प्राप्ति हो सकती है। किन्तु यह लवलेश अनुभव की प्राप्ति भी कोई विरला ही पा सकता है-५२ .
इस भव में यदि योगाभ्यास से लवलेश अनुभव की प्राप्ति भी हो जाय तो कठिन कर्मों का नाश हो जाता है जिससे भव्य जीव थोड़े ही भवों में सब प्रकार के कर्मों का नाश कर मोक्ष को प्राप्त कर लेता है-५३ (दोहा)-व्यवहारे ये ध्यान को, भेद नवि कहेवाय ।
भिन्न-भिन्न कहता थकां, ग्रंथ अधिक हो जाय ।। ५४ ॥ नाम मात्र अब कहत हं, याको किंचित भाव।
अधिक भवि तुम जाणजो, गुरु गम तास लखाव ॥ ५५ ॥ अर्थ-व्यवहार ध्यान (प्राणायाम) के अनेक भेद हैं । इनका भिन्न-भिन्न वर्णन करने से ग्रंथ बहुत बड़ा हो जाएगा, इस लिए उन भेदों का विस्तृत वर्णन नहीं करते-५४ ...
अब मैं इसका नाम मात्र (किंचित) स्वरूप कहता हं । अधिक विस्तार से जानने की इच्छा वालों को योगी गुरु से जान लेना चाहिए-५५ .
गुण स्थान १४ हैं-(२) मिथ्यात्व, (२) सास्वादन, (३) मिश्र, (४) सम्यग्दर्शन, (५) देश विरति, (६) प्रमत्त श्रमणत्व, (७) अप्रमत्त श्रमणत्व, (८) अपूर्वकरण, (६) अनिवृत्ति बादर, (१०) सूक्ष्म संप्राय, (११) उपशांत मोह, (१२) क्षीण मोह, (१३) सयोगी केवली, (१४) अयोगी केवली।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org