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पुरुषार्थहीन प्रत्येक कार्य में कुछ न कुछ दोष निकलता रहता है। [२ इसकी महिमा ऊपर लिखित ग्रन्थों में है। यदि में लिखू, तो लिखते-
दिने । आयु व्यतीत हो जाय, परन्तु इसकी महिमा का अन्त न हो। यदि सरस्वती, बृहस्पति, शेष भी लिखें तो भी सम्पूर्ण न हो । तथा जैन मतावलम्बी इस ओंकार को पंच परमेष्ठी मानकर उपासना करते हैं । और बौद्धादि जितने मत हैं, वे सब इस ओंकार को अपना इष्टदेव मानकर उपासना करते हैं। बल्कि ओंकार बिना अन्य कोई मन्त्रादिक भी नहीं बोलते हैं । इस रीति से ओंकार शब्द को जगत् गाता है ।
२–'सोह' का अर्थ सोऽहं शब्द जो है, इसकी अध्यात्मिक लोग रटना करते हैं । 'सः' जो परमात्मा, है 'ऽहं' वही मैं हूं। इस कथन से परमात्मा का अभेद-रूप ध्यान करके परमात्मा होता है, क्योंकि हकार करके भीतर को घुसा और सकार करके समा गया। इस रीति से इस 'सोऽहं' शब्द की महिमा अध्यात्मिक लोग गाते
(ख) निम्नलिखित गाथा भी 'ओम्' शब्द की व्याख्या कर रही है"आययचक्खू लोगविपस्सी लोगस्स अहोभागं जाणइ । उड्ढभागं जाणइ तिरयं भागं जाणइ" ॥२॥
अर्थात्-जो महापुरुष इहलोक तथा परलोक में होने वाला समस्त अपायादि को प्रत्यक्षत: अच्छी तरह जानता है; जिसके ज्ञान में कोई पदार्थ बाधक नहीं बन सकता; जो सांसारिक विषयों से उत्पन्न होने वाले समस्त सुखों को विषतुल्य समझकर शम-सुख को प्राप्त कर चुका है; वही आयत चक्षु; दीर्घदर्शी; तीनों लोकों को जानने वाला पूर्ण ज्ञानी महापुरुष है।
उपरिनिर्दिष्ट 'अहोभागं जाणइ, उड्ढं भागं जाणइ' तिरयं भागं जाणइ" इन तोनों वाक्यों के आद्य अक्षरों को मिलाने से भी 'ओम्' सिद्ध होता है । यथा(१) अहोभागं अधोभागम्-अ (२). उड्ढभाग= ऊर्ध्व भागम्-ऊ। (३) तिरियं भाग =मध्यभागम्-म् । (तिरियं शब्क मध्यार्थक है) पूर्ववत् 'आद्गुणः" सूत्र से गुंण करने पर 'ओम् शब्द सिद्ध होता है। - जो व्यक्ति तीनों लोकों में होने वाली समस्त क्रियाओं का पूर्ण ज्ञान खता है, वह दीर्घदर्शी सर्वज्ञ पुरुष 'प्रोम्' शब्द वाच्य है।
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