Book Title: Swaroday Vignan
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Sahitya Prakashan Mandir

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Page 311
________________ सब प्राणियों के प्रति समभाव है, किसी से मेरा वर नहीं है । साहूकार का पुत्र कहने लगा कि हे पिताजी ! अब मैं वेश्याओं जाऊंगा, क्योंकि मुझको वहां जाने से ग्लानि उत्पन्न होती है, इसलिए मेरा चित्त वहां जाने को नहीं करता है । आप मुझको शरमिन्दा न करें, मुझको वहां जाने से लज्जा आती है, तथा उनके यहां जाना मुझको दुःख देता है । यह वृत्तान्त अपने पुत्र के सुख से सुनकर उस साहूकार ने चित्त में विचार किया कि मेरा उपाय तो सफल हो गया, क्योंकि इसका चित्त उनसे हट गया । फिर वह लड़का वेश्या के स्थान पर कभी नहीं गया, और वेश्या - गमन के व्यसन को छोड़कर अपने घर में संतोष किया । इस दृष्टान्त का दान्तिक अर्थ पाठक गरण को समझाते है, कि जैसे उस साहूकार ने वेश्या - गमन छुड़ाने के अनेक प्रयत्न किये, परन्तु ग्लानि के अतिरिक्त कोई उपाय सफल न हुआ । इसी रीति से जब तक आत्मा का स्वरूप जानकर अनात्मा में ग्लानि न होगी, तब तक आसन, प्राणायाम, मुद्रा, कुम्भक, चक्रादि कितने ही उपाय करो, कदापि अनात्मा न छूटेगी । इसलिए जब अनात्मा - रूप ध्येय में ग्लानि होकर हेय होगा, उस समय रुचि रूप आत्मा को उपादेय अर्थात् ग्रहण करेगा । इसलिए पदार्थ का कहना आवश्यक मालूम होता है, सो पदार्थ दिखाते हैं पदार्थ-निरूपण श्री वीतराग सर्वज्ञ देव ने दो पदार्थ बताये हैं— जीव और अजीव । इन दो पदार्थों के छः द्रव्य होते हैं, जिसमें एक तो जीव द्रव्य है, और पांच अजीव द्रव्य हैं, जिसमें भी चार तो मुख्य हैं, और एक उपचार से हैं । सो इनके नाम गिनाते हैं १ प्रकाशास्तिकाय, २ धर्मास्तिकाय ३ अधर्मास्तिकाय ४ पुग्दलास्तिकाय, ये चार तो मुख्य हैं और पांचवां काल द्रव्य उपचार से है । इन छः द्रव्यों के गुण और पर्याय गिनाते हैं । प्रथम जीव द्रव्य के चार गुण और चार पर्याय ये हैं । गुण - १ अनन्त ज्ञान, २ अनन्त दर्शन, ३ अनन्त चारित्र, ४ अनन्त वीर्य । पर्याय – १ अव्याबाध, २ अनवगाह, ३ अमूर्तिक, ४ अगुरुलघु Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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