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सभी श्रेष्ठ जन सदैव दुष्टों से प्राणियों की रखा करते हैं ।
生きる
कर्म' ने ज्ञान-गुण को दबा रखा है और दर्शनावरणीय कर्म के दर्शन सुरा को इस रीति से आठों कर्मों ने आठों गुणों को दबा रखा हैं । इसलिए मैं कर्मों के वश में होकर संसार में परिभ्रमण करता हूं, क्योंकि जो सुख-दुःख है, सो सब कर्मों के करने से ही हैं । इसलिए सुख हो तो खुश न होना चाहिए और दुख होने पर शोक भी न करना चाहिए । कर्मों की प्रकृति, स्थिति, रस, प्रदेशों का बन्ध, अथवा उदय, उदीरणा, सत्ता आदि का जो विचार है, वह विपाक -विचय ध्येय कहलाता है ।
४ संस्थान- विचय
संस्थान चौदह राजलोक हैं, जिनको वैष्णव सम्प्रदाय वाले चौदह भुवन कहते हैं और मुसलमान लोग चौदह तबक कहते हैं । इस चौदह राजलोक का विचार करे कि नरक उस जगह पर है, तथा मनुष्य लोक उस स्थान पर है, देवता अमुक स्थान पर हैं; अथवा, सात राज- लोक नीचे, सात राजलोक ऊपर और बीच में मनुष्यलोक है । अथवा कर्मों के वश सब जगह मैंने जन्म-मरण किये - हैं । ऐसा जो विचार उसका नाम संस्थान- विचय ध्येय है ।
इन चारों ध्येयों की धारणा करके जो ध्यान करे तो उसको शुभगति अर्थात् मनुष्य देवलोकादि गति मिले। यह चौथे गुणस्थान से लेकर सातवें गुण स्थान तक होता है ।
मोक्ष के हेतुभूत ध्येय का कथन
इस ध्येय के भी चार भेद हैं, सो इन चारों में से पहला और दूसरा ध्येय तो युक्त-योगिन को प्राप्त कराने वाला है और पिछले दो ध्येय रूप धारणा से . ध्यान कर युक्त-योगी, शरीर छोड़ने के समय लीन अर्थात् आदि अनन्त समाधि को प्राप्त हो जाता है । चारों भेदों के नाम ये हैं :
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१ पृथक्त्व-वितर्क सप्रविचार, २ एकत्व - वितर्क अप्रविचार, ३ सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाती, ४ उच्छिन्न- क्रियानुवृत्ति । इन ध्येयों में निरावलम्ब अर्थात् किसी का सहारा नहीं, केवल अपनी आत्मा में जो गुरण पर्याय हैं, उन्हीं का विचार और रमण है, न कि दूसरों का ।
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