Book Title: Swaroday Vignan
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Sahitya Prakashan Mandir

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Page 318
________________ जो समस्त प्राणियोंके प्रति समभाव रखता है। प्रस्तुतः वही श्रमण है। [२८५ उस समय सजन कसाई ने विचारा, कि बकरे को मारूं तो सवेरे सा पास खराब हो जाएगा। इसलिए अभी इसके पोते (अण्डकोश) काट ले, उसमें से सेर भर मांस निकल पावेगा। फिर सुबह को बकरा मार डालूंगा, यह विचार कर छुरी लेकर चला, तब बकरा हंसने लगा। जब कसाई ने कहा कि भाई। तू हंसता क्यों है ? तब बकरा बोला कि तू अपना काम कर, तुझे इससे क्या मतलब है ? उस समय वह सजन कसाई बहुत पीछे पड़ गया, तब बकरा कहने लगा कि भाई ! आज तक मेरा तेरा सिर काटने का झगड़ा था। मेरा तू सिर काटता था और मैं तेरा सिर काटता था; आज तूने दूसरा झगड़ा उठाया है, इसलिए मुझको हंसी आई है। . ___यह सुन कर सजन कसाई ने छुरी रख दी और बकरे को न मारा, तथा अपने चित्त में प्रतिज्ञा कर ली, कि आज से किसी जीव को कभी न मारूंगा। उस सिपाही से उसने उसी समय निषेध कर दिया, कि मेरे यहां मांस नहीं है। इसलिए प्रात्मार्थी को किसी जीव को न मारना चाहिए। मृषानुबन्धि रौद्र ध्येय का स्वरूप झूठ बोलकर मन में खुशी हो और झूठ बोलकर मन में विचार करे कि देखो मैंने किस चालाकी से झूठ बोला है कि किसी को मालूम भी न हुआ। उसका नाम मृषानुबन्धी रौद्र ध्येय है। चौरानुबन्धि रौद्र ध्येय का स्वरूप बिना पूछे किसी की वस्तु ले, चोरी अथवा ठगाई करे और चित्त में विचारे कि हम कितने हुशियार हैं, कि किसी को विदित भी न हुआ और माल ठग लाये, तथा खूब आनन्द उठाया, किसी के हाथ न आया। ऐसे परिणाम को चौरानुबन्धी रौद्र ध्येय कहते हैं । परिग्रहानुबन्धि रौद्र ध्येय का स्वरूप धन-धान्यादि बहुत रखने में अथवा अष्ट प्रहर परिग्रह जमा करने के परिणाम को परिग्रानुबन्धि रौद्र ध्येय कहते हैं । १–आर्तध्येय की धारणा करने वाला तिर्यंच-गति में जाता है । इस आर्त ध्येय का ध्यान पांचवें छठे गुणस्थान तक रहता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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