Book Title: Swaroday Vignan
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Sahitya Prakashan Mandir

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Page 349
________________ ★ दुर्वचन से मंत्री का, लोभ से विवेक का नाश होता है । बन्द कर वृत्ति को सद्विचार द्वारा बिखेर डालना चाहिये । तत्पश्चात् फिर शुरू कर देना चाहिए । जापू यदि वृत्तियां उठती ही जायेंगी और उन्हें तोड़े बिना जाप चालू ही रखा जायेगा अथवा उन विकल्पों की उपेक्षा कर जाप को चालू रखा जायेगा तो वे क्षुद्र वृत्तियां अन्दर ही दब कर पड़ी रहेंगी और थोड़ा सा कारण मिलते ही प्रबल होकर जाप को अव्यवस्थित कर डालेंगी । इसलिये विचार बल से उन्हें तत्काल ही नष्ट कर देना चाहिये । जाप चाहे कम हो इसकी चिन्ता नहीं है । जाप की गिनती की कोई खास आवश्यकता नहीं है । जाप कीं गिनती का कोई खास मूल्य भी नहीं है । मूल्य तो है क्षुद्र वृत्तियों को कम करने और शुभ वृत्तियों को उन्नत बनाने का । वृत्तियों का निरीक्षण कुछ समय के बाद जाप को बन्द करके हृदय के मध्य से दो अंगुल बांईं तरफ एकाग्रता पूर्वक देखना चाहिए। आंखों को तो बन्द ही रखना चाहिये । मन में उठती हुई स्वाभाविक वृत्तियों को रोकना नहीं चाहिए । वृत्तियां उठें ऐसी प्रेरणा भी नहीं करनी चाहिए । स्वयं तो द्रष्टा बन कर देखते रहना चाहिये । स्वाभाविक सहज उपयोग में रहते हुए बीच-बीच में उपयोग का विस्मरण हो जाना सम्भव है । उस समय कोई न कोई वृत्ति अवश्यमेव प्रगट हो जाती है । उस वृत्ति को विचारों द्वारा तोड़ कर फिर शान्त होकर अवलोकन करते रहना चाहिए । 1 इस अभ्यास से सत्ता में रही हुई अनेक प्रकार की वृत्तियां बाहर आती हैं तथा फिर से वे वृत्तियां उत्पन्न हो इस प्रकार विवेक ज्ञान के विचार द्वारा नष्ट कर दी जाती हैं । उसके साथ ही नई इच्छाए न करने के कारण सत्ता में नवीन बीजों का प्रवेश भी रुक जाता है । इस अभ्यास से संवर और निर्जरा एक साथ होते हैं । संचय होने के लिये आने वाले कर्मों को रोकना संवर है तथा संचित कर्मों को नष्ट करना निर्जरा है । इस अभ्यास से ये दोनों होते हैं । द्रष्टा = [ प्रेक्षक ] की तरह देखते रहने से, यदि वृत्तियां न उठें तो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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