________________
प्रमाद से द्रव्य का, नियिक से सेना का नाश होता है।
हुए मानसिक प्राकार को तथा वातावरण को भूगर्भ कहते हैं । अपने साम्य रूप लक्ष्यबिन्दु जब कि भूगर्भ बंध जाता है तब वह निश्चित बीजपन के रूप को धारण करता है। अपनी, अपने ध्येय से सम्बन्ध रखने वाली, प्रत्येक क्रिया या प्रवृत्ति इस भूगर्भ की तरह प्रवाह रूप से आकर बीज को पोषण कर उसमें से आत्मा का पूर्ण विकास रूप फल पैदा करती है। अपने विचार बीज रूप होकर उग निकलते हैं इसलिये विचार और इच्छाएं बहुत सावधानी से करनी चाहिये । अब से अधम वृत्ति वाले नये बीज बोना छोड़ देना चाहिये।
यदि अपना लक्ष्य आत्म विकास का ही हो तो अपनी सब प्रवृत्तियों का फल भी वही पैदा होगा। परन्तु यदि अपना लक्ष्य इन व्यवहार की या योग की चमत्कारी शक्तियां पैदा करने के लिये होगा तो अपनी उत्तम क्रियाए भी उसी का पोषण रूप परिणमन होकर उसी प्रकार का फल उत्पन्न करेंगी। तथा इनमें से नवीन कर्म प्रगट करेंगी। इसलिये अपना लक्षबिन्दु आत्मा की पूर्णता प्रगट करने के सिवाय दूसरा नहीं होना चाहिये । इस बात की बहुत संभाल रखनी चाहिये।
ध्यान मार्ग के विरुद्ध विचार रूपी कांटों को न उगने देना चाहिये। यदि उग जाये तो विचार बल एवं वृत्ति निरीक्षण द्वारा उन्हें उखाड़ डालना चाहिये । यदि ऐसा नहीं किया जायेगा तो ये कांटे भी उग निकलेंगे और मूल लक्ष्य को पुष्ट करने के लिये जो खुराक मिलती है उसे खुद खाकर हमारे साध्य को निःसत्व बना देंगे।
. ध्यान करने का स्थान हृदय के बांयें भाग की तरफ उपयोग रखकर वहां "शान्ति, शान्ति, शान्ति' का जाप करना चाहिए । जाप के समय हृदय में यदि कोई क्षुद्र वृत्ति उठ पावे तो जाप बन्द कर, उस वृत्ति की विरोधी उन्नतिवाली वृत्ति उत्पन्न कर, विवेक ज्ञान द्वारा क्षुद्र वृत्ति की असारता समझ उस वृत्ति को तोड़ डालना चाहिए । तथा फिर जाप प्रारम्भ कर देना चाहिये । इसी प्रकार जाप करते समय कोई भी विकल्प उठे उसी समय उस वृत्ति को पकड़ जाफ.
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org