Book Title: Swaroday Vignan
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Sahitya Prakashan Mandir

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Page 331
________________ जो हो चुका है वह निश्चित है। जो होगा वह अनिश्चित है। पाहिये । क्योंकि पात्र रस का आधार है उस में जितनी अस्थिरता रहेगी उस अस्थिरता का प्रभाव आधेय (रस) पर अवश्य पड़ेगा । इसलिये मन-वचनकाया आत्मा के आधार रूप हैं और आत्मा आधेय रूप है । आधार की विकलता अथवा अस्थिरता का प्रभाव आधेय पर अवश्य होता है । यह मस्थिरता एकाग्रता करने के सिवाय बन्द नहीं हो सकती। एकाग्रता करने के 'लिये भी क्रमवार अभ्यास करने वी आवश्यकता है। एकाग्रता होने पर ही लय और तत्त्वज्ञान की स्थिति प्राप्त की जा सकती है। अतः आत्मा को निश्चल रखने के लिवे मन-वचन-काया को क्षोभ न हो इसकी पूरी-पूरी सावधानी रखनी चाहिये । इसके लिये पूरी सावधानी से एकाग्रता रखनी चाहिये। १०-एकाग्रता मन' की बार-बार परावर्त प्राप्त करने वाली स्थिति को शांत करना और मन को किसी एक ही आकृति अथवा विचार अथवा गुण पर दृढ़ता से लगा रखना, इसे एकाग्रता कहते हैं। -- अभ्यासियों को प्रारम्भ में एकाग्रता करने के लिये जितनी मेहनत करनी पड़ती है उतनी मेहनत किसी भी प्रकार की क्रिया में नहीं करनी पड़ती। एकाग्रता रखने की क्रिया बहुत परिश्रमप्रद तथा कष्टसाध्य लगती है। परन्तु आत्म-विशुद्धि के लिये एकाग्रता प्राप्त किये बिना दूसरा कोई उपाय ही नहीं है । इसके बिना आगे बढ़ना असम्भव है। इसलिये प्रबल प्रयत्न करके भी एकाग्रता सिद्ध करनी चाहिये। ११-एकाग्रता करने की रीति और उपयोगी सूचना मन में उत्पन्न होने वाले विकल्पों का कोई उत्तर न देने से अभ्यास दृढ़ होता है। ऐसा करने से विचारों की प्रत्युत्तर देने की वृत्तियां शांत हो जाती हैं । एकाग्रता में पूर्ण शाम्य अवस्था की जरूरत हैं अर्थात् विकल्प उत्पन्न न होने देना इसके लिये स्थिर शान्ति रखनी चाहिये । यह शान्ति इतनी प्रबल होनी चाहिये कि बाह्य किसी भी निमित्त से चालू विषय के सिवाय मन का परिणामांतर कदापि न हो। तथा अमुक विकल्प को रोकना है ऐसा भी मन में परिणमन नहीं होना चाहिये। प्रायः देखा जाता है कि एकाग्रता में मन की Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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