Book Title: Swaroday Vignan
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Sahitya Prakashan Mandir

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Page 341
________________ .. मत डरो, मत व्यषित हो । द्वापरमात्मा के स्वरूप का अखंड भान सर्वथा बना रहे । दूसरे फल की इच्छा ही न हो ! इस तरह मानसिक पूजा (मन के द्वारा प्रत्येक वस्तु की कल्पना-करते हुए पूजा) करके पहले प्रभु के दाहिने पैर के अंगूठे को देखने की कल्पना करनी चाहिए, वार-बार उस कल्पना को खड़ी करना चाहिए। जब वह अंगूठा दिखाई दे, उस पर धारणा पक्की हो जाए कि कल्पना करते ही वह अंगूठा झट से प्रत्यक्ष की तरह मालूम होने लगे, तब दूसरी अंगुलियां देखना। तत्पश्चात् इसी प्रकार दूसरा पग देखना। इसी तरह पालथी, कमर, हृदय और मुख आदि क्रमशः देखना । तत्पश्चात् संपूर्ण शरीर पर धारणा करनी चाहिए। जब तक एक भाग बराबर न दिखाई देने लगे तब तक दूसरे भाग पर नज़र नहीं डालनी चाहिए। दूसरा भाग दिखाई देने लगे तब पहला और दूसरा दोनों भाग एक साथ देखने लगना। इस प्रकार आगे के भागों के साथ भी पहले के दिखाई दिए हुए भागों को मिला-मिलाकर देखते जाना चाहिए। सम्पूर्ण शरीर जब भली-भांति दिखलाई देने लगे तब इस मूर्ति को सजीव प्रभु के रूप में बदल देना चाहिए अर्थात ऐसी कल्पना करके ध्यान करना चाहिए कि प्रभु का शरीर हलन चलन कर रहा है, बोल रहा है आदि । फिर इच्छानुसार प्रभु को बैठे, खड़े, अथवा सोने की कल्पना कर उसकी धारणा को दृढ़ करना। इस एकाग्रता के साथ परमात्मा के नाम का मन्त्र "ॐ अहं नमः" का जाप करते रहना चाहिए। उनके हृदय में दृष्टि स्थापित कर वही जाप करते रहना चाहिए। यदि गिनती न रहे तो कोई हानि नहीं है । भृकुटी और तालुपुर भी जाप करना चाहिए। जितना समय मिले भगवान् के जीवित शरीर को सन्मुख हृदय में खड़ा करके जाप करते ही रहना चाहिए। यदि हो सके तो घण्टों के घण्टों इस ध्यान में व्यतीत करते रहना चाहिए.। ऐसा करने से मन एकाग्र होने के साथ-साथ पवित्र होता है। कर्म मल बल जाता है । मन जितना निर्मल होता जाएगा उतना ही स्थिर भी होता जायेगा । मन को स्थिर करने की धारणा हृदय में और मस्तक पर करनी चाहिए। जैसे-जैसे अभ्यास बढ़ता जाएगा वैसे ही बैसे आगे का मार्ग Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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