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ये साधक जीवन की प्राशा और मृत्यु के भय से सर्वथा मुक्त होते हैं है।नगीन कर्मों के बन्धन और उनके कारण भावी में प्राप्त होने वाले जन्म को आधार, मन में उत्पन्न होने वाली ये वृत्तियां ही हैं । यदि मन के अन्दर सात्विक भाव वाली वृत्तियां उत्पन्न की जाएं, अथवा निरन्तर आत्म जागृति रख, प्रबल पुरुषार्थ द्वारा परमार्थी आचरण बना, सात्विक भाव वाली वृत्तियों को ही उत्साहित करें तथा व्यवहार के हरेक प्रसंग पर उन्हीं को टिका रखें तो हम अपना भावी जन्म तथा वर्तमान जीवन बहुत ऊंचा बना सकेंगे। _यदि हमारा आचरण मात्र व्यवहार के लिए, तथा परमार्थ भी व्यवहार
की अनुकूलता के लिए ही होंगे तो इससे हमारी राजस प्रकृति पोषण पायेगी जिससे हमारा जीवन मध्यम दर्जे का बन जायेगा। यदि हमारा आचरण केवल स्वार्थमय, वासनाओं को ही पोषण करने वाला, इन्हें (स्वार्थ और वासनाओं कों) प्राप्त करने के लिये विविध प्रकार की रौद्र प्रवृत्तियों बाला एवं अनेक जीवों को संहार करने वाला होगा तो हमारी वृत्तियां तामस भाव द्वारा पोषण पाकर हमारे भावी जन्म को बिगाड़ देंगी, अर्थात् इसके परिगाम स्वरूप हमें भावी जन्म बहुत ही खराब प्राप्त होगा।
संक्षेप में कहें तो हमारी मनोवृत्तियों का सात्विक, राजसिक और तामसिक इन तीन प्रकार की वृत्तियों में समावेश हो जाता है । यह प्रत्येक वृत्ति विवेक और विचार बल' से बदली जा सकती है । चाहे कैसे भी विषम प्रसंग क्यों न हों उन्हें भी हम विचार वल' और विवेक की सहायता से बदल सकते हैं तामसिक और राजसिक प्रकृति को सात्विक रूप से बदल कर प्रात्मा को पतन की ओर जाते रोक उन्नत बना सकने का सामर्थ्य हमारे हाथ में है। जब कभी ऐसा प्रसंग अपने हाथ में आवे तब उसे जाने नहीं देना चाहिए, अन्यथा चिरकाल से परिपुष्ट बनी हुई नीच प्रवृत्तियां अपना दुःखमय प्रभाव दिखलाये बिना नहीं रहेंगी।
दुनिया में बड़े कहे जाने वाले मनुष्यों की वृत्तियों का पोषण भी बड़ा ही होता है, परन्तु यदि वे आत्म भाव' की तरफ जागृत होंगे तथा वृत्तियों के पोषण से उत्पन्न होने वाले सुख-दुःखक्ता उन्हें ज्ञान होगा तो वे अधम
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