Book Title: Swaroday Vignan
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Sahitya Prakashan Mandir

View full book text
Previous | Next

Page 342
________________ जो महान होता है, उसका व्रत ( कार्य ) भी महान होता है । हाथ में आता जाएगा । इस प्रकार प्रारम्भ में ध्यान का अभ्यांस आगे बढ़ सकेंगे, अर्थात् महान् ध्यानी बना जा सकेगा । रूपास्थ ध्यान का फल रूपस्थ ध्यान का अभ्यास करने से तन्मयता प्राप्त होती है और अन्त में सर्वज्ञता प्राप्त होती है । जो सर्वज्ञ प्रभु है वह मैं स्वयं ही निश्चय दृष्टि से हूं । इस प्रकार साधक उस सर्वज्ञ के साथ तन्मयता को प्राप्त करता है । इस प्रकार योगी सर्वज्ञ बन सकता है । राग रहित का ध्यान करने से स्वयं राग रहित होकर कर्मों से मुक्त होता 1 तथा रागियों का आलम्बन लेने वाला काम, क्रोध, हर्ष, शोक, राग, द्वेषादि विक्षेप को करने वाली सरागता को प्राप्त करता है । जिस-जिस भावना से जिस जिस जगह आत्मा को योजित किया जायेगा, उन-उन निमित्तों को पाकर वह उस उस स्थान पर तन्मयता प्राप्त करता है । जैसे स्फटिकमरिण के पास लाल, पीला, नीला, काला आदि जिस रंग की वस्तु रखी जावेगी, उस वस्तु की निकटता से स्फटिकमरिण भी वैसे वैसे रंग की दिखाई देगी । उसी प्रकार आत्मा को भी जैसी भावना द्वारा प्रेरित किया जाएगा वैसा ही वह बनेगा । इसलिये बिना चाह (इच्छा) के भी केवल कौतुक समझकर भी असद्ध्यानों का प्रालम्बन नहीं लेना चाहिये । क्योंकि इस अद्ध्यान का सेवन करना अपने विनाश और पतन के लिये ही होता है । व्यवहार में वृत्ति स्वरूप का अवलोकन हमारे मन के अन्दर जो भिन्न-भिन्न प्रकार के विचार उत्पन्न होते हैं उनका जब कुछ अधिक स्थूल रूप हो जाता है तब उसे वृत्ति कहा जाता है । वृत्तियां मन में उत्पन्न होती हैं । ये बीज स्वरूप हैं । जैसे एक बीज में से अनेक बीज पैदा किये जा सकते हैं । वैसे ही वृत्ति के साथ जब अपनी राग अथवा द्वेषं वाली भावना मिलती है तब उससे अनेक वृत्तियां उत्पन्न हो जाती हैं । हमारा रात-दिन का व्यवहार इन वृत्तियों को पोषण करने वाला Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354