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जो आता है वह जाता भी है।
१४-प्रात्मश्रद्धा-अपने पर विश्वास .. आत्मा अमर है। उसके ज्ञान और शान्ति की सीमा नहीं है । सारे विश्व को जानने का ज्ञान आत्मा में है। विश्व पर सत्ता चला सके इतना बल आत्मा में है । वह आत्मा मैं स्वयमेव हूं। मुझे अपने आत्मबल पर पूर्ण विश्वास है । उसमें कोई विघ्न नहीं डाल सकता है। विघ्नों को हटाने का • बल मुझमें है। महान् विपदाओं के समय भी मेरी आत्मश्रद्धा अटल रहेगी। प्रबल भय के समय भी मैं अपने आत्म-विकास कार्य किये ही जाऊंगा । मेरा ज्ञान बातों में ही नहीं रहेगा, परन्तु मैं सत्याचरण को अभी से करना प्रारम्भ करता हूं। मैंने अज्ञान दशा में स्वयं ही अपने को बन्धन डाले हैं दूसरा कोई मुझे बन्धन नहीं डाल सकता। इस लिए इन बन्धनों को दूर करने के लिए स्वयं ही पुरुषार्थ करने की आवश्यकता है। इन बन्धनों को तोड़ने में दूसरा मुझे कोई सहायता देगा, इस भावना को मैं अभी से छोड़ता हूं। अब मैं परमुखापेक्षी न रहूंगा, सुख-दुःख विरासत में मिली हुई चीजें नहीं हैं । ये तो मेरे उन्मार्ग सेवन से किये हुए कृत्यों का ही परिणाम है। अब सीधे रास्ते चेष्टा करके उन्हें दूर करूंगा । ये बादल बखेरे जा सकते हैं । मैं विघ्नों को विघ्नरूप नहीं मानता । परन्तु इनके अस्तित्व से ही मुझे पुरुषार्थ करने में विशेष प्रोत्साहन मिलता है। दुःख अथवा विघ्नों की मौजूदगी से मेरा सामर्थ्य विशेष प्रकट होता है, मैं इस समय दुगने वेग से पुरुषार्थ कर सकता हूं। मैं ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता जाऊंगा त्यों-त्यों मेरे संयोग भी अवश्यमेव बदलते ही जाएंगे। परिस्थितियों के अधीन होने में नहीं परन्तु उन्हें अधीन करने में ही सच्ची वीरता है। अनुकूल परिस्थिति में रहने की इच्छा करना तो मेरी एक निर्बलता है उससे मेरी शक्ति दबी रहती है। मुझे पुरुषार्थ करने का अवकाश नहीं मिलता, इसलिए मैं प्रतिकूल संयोगों को मित्र समान मानकर उनका स्वागत करता हूं। मेरे प्रतिकूल' मित्रो ! आओ ! तुम्हारे आने से मुझे विशेष जागृति रखने और परिश्रम करने का अवसर प्राप्त होता है । मैं स्वार्थ-लालच का दास कदापि न बनूंगा, क्योंकि इनमें मेरी प्रवृत्ति रुक जाती है। मैं अपने भाग्य की कठपुतली न बनूंगा, परन्तु मैं उसे बदल
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