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किचन मुनि और तो क्या, अपनी देह पर भी ममत्व नहीं रखते
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४ - मन के लक्षरण
१ - विक्षिप्त मन को चपलता इष्ट है, २ - यातायात मन थोड़ा आनंद वाला है, प्रथम अभ्यास में यह दोनों प्रकार का ही मन होता है और इनका विषय विकल्प को ग्रहण करने वाला होता है ।
प्रथम अभ्यासी जब अभ्यास करता है, तब मन में अनेक प्रकार के विक्षेप आते रहते हैं । मन स्थित होता नहीं, चपलता ग्रहण किया करता है । इस पर से अभ्यासी को हताश अथवा निराश नहीं होना चाहिये ।
एक मृग जब जाल के पाश में फंस जाता है तब वह उससे छूटने के लिये छटपटाता है, दौड़-धूप करने में भी किसी प्रकार की कमी नहीं रखता । यदि यह देखकर शिकारी उसे छोड़ दे तो वह अवश्य छूट जायेगा, फिर कभी हाथ में नहीं आयेगा । यदि शिकारी उसे दृढ़ता से बांधकर दौड़-धाम करने दे तो अन्त में वह थक कर हार जाएगा और दौड़-धाम छोड़ कर स्थिर हो जायगा । इसी प्रकार प्रथम अभ्यासी मन की ऐसी चपलता और विक्षेपता देखकर यदि निराश हो जाए और अपना अभ्यास छोड़ दे तो मन छूट जाएगा । फिर कभी काबू में न आवेगा । यदि हिम्मत रखकर योगाभ्यासी अपना अभ्यास आगे बढ़ाता चला जावेगा तो वहुत चपल और विक्षिप्त मन भी शांत होकर स्थिरता प्राप्त कर लेगा । पहली विक्षिप्त दशा लांघने के बाद
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२- दूसरी यातायात दशा मन की है । यातायात का मतलब है जाना और आना । थोड़ी देर मन स्थिर रहे फिर भाग निकले अर्थात् विकल्प आ जाय । समझा बुझाकर मन स्थिर किया पर दूसरे क्षरण चला जाय । यह मन की यातायात अवस्था है । पहली विक्षिप्त दशा से दूसरी यातायात श्रेष्ठ है और इसमें कुछ आनन्द का लेश रहा हुआ है; क्योंकि जितनी बार मन स्थिर हों उतनी बार तो आनन्द का अनुभव होगा ही ।
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३ - तीसरी अवस्था श्लिष्ट मन की है । यह अवस्था स्थिरता और आनन्द वाली हैं । जितनी मन की स्थिरता उतना आनन्द | मन की इस तीनरी अवस्था में दूसरी अवस्था से विशेष स्थिरता होने से आनन्द भी विशेष होता है ।
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