Book Title: Swaroday Vignan
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Sahitya Prakashan Mandir

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Page 326
________________ संसार में मुझसे कोई द्वेष न करे और न मैं ही करू। २९ विवेक-सहित अपनी बुद्धि में विचारो जिससे अनुभव की प्राप्ति हो । क्योंकि इन लोगों ने घर छोड़ा, सिर मुंडाया, योगी नाम धराया, अपने को पूजाया, फिर भी पूरा भेद न पाया, सुनी कुछ और करी न गौर (ध्यान), लोगों को कुछ और समझाया, गुरुगम से इन आठ बातों का पूरा पता न पाया, अपात्र जान कर गुरु ने न बतलाया। क्योंकि युंजान योगी तो योजना करने में आठ बातों को स्थूल समय में ऐक साथ करता है, उसका अनुभव अपने चित्त में धरता है, उनका अनुभव वचन' द्वारा नहीं निकलता है, उन आठ बातों के अनुभव से आत्मा को भरता है, उसमें चिदानन्द रूप आनन्द झरता है, कुमति के संग को परिहरता है, शुद्ध चेतना को वरता है, सुमति के संग हो जगत् को विसरता है और युक्त योगी सदा आठ बातों में लीन रहता है, इसलिए आठ बातों के नाम पाठकगण को दिखाते हैं। १ ध्येय, २ ध्यान, ३ ध्याता, ४ वायु, ५ मन, ६ श्रुत, ७ ध्वनि (शब्द) ८ आत्मवृत्ति। उन आठ बातों का जो एक करना उसी का नाम अष्टावधान है। इस अष्टावधान को युंजान-योगी साध कर समाधि में लीन हो जावे, कुछ देर के बाद युक्त-योगी पद पावे, जैन मत में तेरहवां गुणस्थान कहावे, वैष्णव मत वाले योगियों में ब्रह्मवेत्ता कहलावे, कोई उसको विदेही भी बतलाये, ऐसा हो तो फिर जन्म-मरण न करावे, शरीर छोड़ने के बाद फिर संसार में न पावे, सर्वज्ञों के ज्ञान में इसीलिए १५ भेदे सिद्ध भावे, इस रीति से चिदानन्द समाधि का गुण गावे। .६१-पिछली टिप्पणी में हम ओम् की रचना का परिचय दे चुके हैं। वह पंचपरमेष्टि के प्रथम अक्षरों के मेल से बना है जिसका दूसरा नाम नवकार मंत्र भी है। पंचपरमेष्टि के नाम १ श्री अरिहंतदेव (सशरीरी ईश्वर)२ श्री सिद्ध भगवान (निराकार अशरीरी ईश्वर) ३ श्री आचार्य महाराज (चतुविध संघ का नेता मुनिराज), ४ श्री उपाध्याय जी महाराज (साधु सध्वियों को शास्त्राभ्यास कराने वाले मुनिराज) ५ साधु मुनिराज (पंचमहाव्रतधारी, रात्रि भोजन परिहारी निग्रंथ यति)। इस प्रकार पंच परमेष्ठियों में पहले दो पदों में ईश्वर परमात्मा तथा अन्त के तीन पदों में सद्गुरु का समावेश होता है । दूसरे प्रकार से ओम् की रचना में तीनों लोकों का समावेश होने से विश्व के स्वरूप वर्णन का समावेश है । इस लिये प्रोम् में देव, गुरु और धर्म का समावेश होने से परम् पूज्य है, परम आराधना का मूल मंत्र है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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