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हम सुपथ से कपथ की और न जायें।
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सविकल्प-निर्विकल्प का दृष्टान्त कोई पुरुष गौ का विचार करे कि गौ के चार पांव हैं और एक-एक पांव में दो-दो खुर हैं, सींग, पूंछ, गल-कम्बल, (गलेका लटकता हुआ चमड़ा) है, यह सविकल्प ध्येय है। इसी रीति से गौ के अवयवों को न विचार करके केवल गौ है ऐसा जो विचार है उसका नाम निर्विकल्प है। वैसे ही आत्मा के अवयवों का विचारना सविकल्प है और एकत्व का जो विचार है सो निर्विकल्प है। इसका विशेष विवरण तो, "शुद्धदेव अनुभव विचार" नामक ग्रन्थ में जहां ५७ बोलवाले देव के स्वरूपों में एक-एक बोल में शेय, हेय, उपादेय, उत्सर्ग, अपवाद, यह पांच-पांच बोल उतार कर दिखाये हैं, भिन्न-भिन्न रूप से समझाये हैं, अनुभव कर बताए हैं, स्याद्वाद शैली यथावत् लाये हैं, वहां से देखो। इस रीति से किंचित् ध्येय का स्वरूप दिखाया। इस ध्येय की धारणा करे और उस धारणा का ध्यान अर्थात् तन्मयता करे। सो पहले ध्येय का ध्यान तो आठवें गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक होता है और दूसरे ध्येय की धारणा का ध्यान बारहवें गुणस्थान में होता है और उस ध्यान में लय होने से सादि-अनन्त समाधि को प्राप्त कर तेरहवें गुणस्थान में युक्त योगी होकर विचरता है। इस रीति से किंचित् ध्यान समाधि का वर्णन किया।
प्रश्न-आपने मोक्ष हेतु के चार भेद बताए । जिनमें दो का वर्णन किया और दो का न किया, इसका कारण क्या ?
उत्तर-हे देवानुप्रिय ! दो भेद न कहने का कारण यह है कि पहले दो ध्येयों की धारणा होने से ध्यान और समाधि का प्रयोजन न रहा, क्योंकि हमारा उद्देश्य ध्यान समाधि तक था, सो कह दिया।
प्रश्न-आपने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार फरमाया, सो तो ठीक है, परन्तु पाठकगण को दो भेदों की आकांक्षा बनी रहेगी। इसलिए प्रसंग से दोनों भेदों के स्वरूप का भी वर्णन करना चाहिए । आगे आप की इच्छा ।
उत्तर-हे देवानुप्रिय ! प्रसंगवश तुम्हारे कथनानुसार कहता हूं कि शास्त्रानुसार युक्तयोगी शरीर छोड़ने के समय इन दोनों भेदों की ध्येय रूप धारणा के ध्यान से सादि-अनन्त स्थिति से सिद्ध क्षेत्र में पहुंचता है और बीच में जो दो
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