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धनसे लिपटा रहनेवाला प्रदानशील व्यक्ति समाजका शत्रु है।
प्रथम भेद का वर्णन . पथर्वत्व जुदाई अर्थात् अजीव को छोड़कर केवल आत्मरूप में, अथवा विभाव को छोड़कर स्वभाव को अंगीकार करने के विषय में, विचार करे ।
सः' अर्थात् अपनी प्रात्मा के अन्य कोई नहीं है। दूसरा विचार, जिसमें ऐसा स्वरूप अर्थात् आत्म द्रव्य, पर्याय और गुण इन तीनों का समावेश अर्थात् संक्रमण करे, गुण में पर्याय का संक्रमण करे, पर्याय में गुण का संक्रमण करे या गण का द्रव्य में करे, इस रीति से निज धर्म में वह रमण करे कि जिसमें धर्मान्तर के भेदों से पृथक्त्वभिन्न, वितर्क-श्रुतज्ञानका का उपयोग हो। सप्रविचार, विकल्प सहित उपयोग का नाम है । क्योंकि एक का चिन्तन करने के बाद, दूसरे का चिन्तन करना, उसी का नाम विचार है। इसलिए निर्मल विकल्प सहित अपनी आत्मा की सत्ता में जो गुण हैं उन्हीं का स्मरण, रमण, भाषण, मनन करे । इसका नाम पृथक्त्व-वितर्क सप्रविचार ध्येय है ।
व द्वितीय भेद का निदर्शन - अपनी आत्मा के जो गुण पर्याय हैं उनकी एकता करे । जैसा कि जीव के गुण पर्याय और जीव एक है, मेरी आत्मा और सिद्ध का स्वरूप एक है, मैं ज्ञान स्वरूप एक हूं, मेरा स्वरूप एक है, मेरी वीर्यरूपी शक्ति से ज्ञान दर्शन अलग नहीं, मैं एक स्वरूप हूं। ये सब मेरे गुण-पर्याय पृथक् नहीं, मेरा इनका समवाय-सम्बन्ध है, मैं पिण्डरूप एक हूं, अपने ध्येय को मैंने धारण किया है । श्रनज्ञान को वितर्क कहते हैं । अप्रविचार-विकल्प करके रहित, दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूप रत्न-त्रयका एक समय में कारण-कार्यपन से चिंतन करना, उसी का नाम एकत्व-वितर्क अप्रविचार ध्येय है। - अब यहां इन दोनों विचारों में ज्ञेय, हेय, उपादेय, अपवाद और उत्सर्ग दिखाते हैं । युञ्जान-योगी के अपवाद और युक्त-योगी के उत्सर्ग का विचार इस तरह से है कि सविकल्प और निर्विकल्प यह दोनों ध्येय तो ज्ञेय हैं, सविकल्प हेय है और निर्विकल्प उपादेय है। सविकल्प-विचार अपवाद मार्ग है और निर्विकल्प उत्सर्ग मार्ग है।
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