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के मन में सबसे महल ही प्रकट होता है । लहानाबार्य ।
रनाक गति को ले जाने वाला है और इस ध्येय का ध्यान पांचवे स्थान तक और हिंसानुबन्धि रौद्र ध्येय किसी एक जीव की अपेक्षा से छठे गुणस्थान तक है। - इन ऊपर लिखे ध्येयों का ध्यान करने वाला अशुभ गति का बन्ध बांधता
___अब शुभगति ले जाने वाले ध्येयों को दिखाते है । १ धर्मध्यय, २ शुक्लध्यय । धर्मध्यय के चार भेद हैं-१ आज्ञा-विचय, २ अपाय-विचय, ३ विपाकविचय, ४ संस्थान-विचय ।
१ प्राज्ञा-विचन ध्येय का वर्णन जो श्री वीतरागदेव ने आज्ञा की है, उसको श्रद्धा-पूर्वक सत्य समझें, क्योंकि जैसे वीतरागदेव ने छः द्रव्यों का स्वरूप, नय, निक्षेप, नित्य-अनित्य, सामान्यविशेष, सिद्ध-स्वरूप, निगोद-स्वरूप, निश्चय-व्यवहार, स्याद्वाद रूप से कहा है, वैसे श्रद्धा-पूर्वक यथार्थ उपयोग में धारे और उसी के अनुसार दूसरे के सामने कहे। इस रीति से प्रथम ध्येय जानना ।
२ अपाय-विचय ___ इस जीव में जो अशुद्धपन है, वह कर्म के संयोग से है, क्योंकि सांसारिक व्यवस्था में अनेक प्रकार के दूषण हैं। अज्ञान, राग, द्वेष, कषाय, आश्रव आदि परन्तु ये मुझमें नही, मैं इनसे पृथक् हूं। मेरी आत्मामें अनंत ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्य है । शुद्ध, बुद्ध, अविनाशी, अज, अनादि, अनन्त, अक्षर, अनक्षर, अचल, अमल, अगम, अनामी, अरूपी, अकर्मा, प्रबन्धक, अभोगी, अरोगी, अभेदी, अवेदी, अच्छेदी, अखेदी, अकषायी, अलेशी अशरीरी, अव्याबाध, अनवगाही, अगुरुलघु परिणामी, अतीन्द्रिय, अप्राणी, अयोनि, असंसारी, अमर, अपर, अपरम्पार, अव्यापी, अनाश्रव, अकम्प, अविरुद्ध , अनाश्रित, अलख, अशोकी, प्रसंगी, अनारक, शुद्ध, चिदानन्द, लोकालोक-ज्ञापक, ऐसा मेरा स्वरूप अर्थात् मेरा आत्मा है । इस ध्येय का नाम है अपाय-विचय ।
३ विपाक-विचय यह मेरा जीव कर्मों के वश होकर सुख-दुःख पाता है, क्योंकि ज्ञानावरणीय
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