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प्राचरण करो जिससे मृत्यु दूर भाग जाये अमरता निकट प्राए ।
उधर से फिर कर दूसरी तरफ को चला जाय, इस रीति से उपयोग भी सिद्ध हो गया। इस प्रकार सामान्य विशेष द्वारा जीव-स्वरूप का वर्णन किया ।
७. नाम - जीव के दो भेद हैं, १ प्रकृत्रिम (अनादि ) २ कृत्रिम । नाम-कर्म के उदय से जो नाम होता है सो अकृत्रिम, तथा अनादि जो जीव और आत्मा हैं, और कृत्रिम, राम, लक्ष्मण, कृष्ण, देवदत्त आदि । अथवा नाम-कर्म के उदय से जिस योनि को प्राप्त हो वैसा ही बोला जाय वह कृत्रिम कहलाता है ।
८. जिस योनि में जीव जावे, उस योनि का जैसा आकार हो उस आकार को प्राप्त हो, अथवा जैसा जीवने ओदारिक शरीर अथवा वैक्रिय शरीर कर्म के उदय से पाया था, वैसा किसी चित्रकार का बनाया हुआ चित्र ही स्थापनाजीव है।
९. जिसको अपनी आत्मा का उपयोग नहीं, वह द्रव्य-जीब है, सो एकेन्द्रिय से पञ्चेन्द्रिय पर्यन्त जान लेना ।
- १०. जिसको अपनी आत्मा का उपयोग है सो भाव स्वरूप है ।
११. इस प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा जीव चेतना - लक्षण है । जो प्रत्यक्ष से जीवों में देखने में आता है । परन्तु यहां नास्तिक अर्थात् चार्वाक के मत को दिखाते हैं । चावकि मतवाला जीव को नहीं मानता है और यह कहता है कि जीव कुछ नहीं है, चार भूत - पृथ्वी, जल, तेज, वायु, इनके मिलने से एक विलक्षण शक्ति उत्पन्न हो जाती है, जैसे पानी आकाश मे वरसता है, और उसमें बुद्बुद पैदा हो जाते हैं, ऐसे ही चार भूतों के मिलने से एक विलक्षण शक्ति पैदा हो जाती है, उसको मूढ़ लोग जीव मानते हैं और भी देखो कि बबूल और गुड़ में नशा नहीं मालूम होता । परन्तु इन दोनों के मिलने से और यन्त्रों द्वारा खींचने से मदरूप एक विलक्षण शक्ति पैदा हो जाती है । वैसे ही चार भूतों के मिलने से विलक्षण शक्ति पैदा हो जाती है, परन्तु जीव कुछ पदार्थ नहीं है, इत्यादि अनेक कोटि उसकी चलती है । सो उसका खंडन-मंडल श्रीनन्दीजी, अथवा श्री सुगडां गजी, आगमों में या स्याद्वादरत्नाकर आदि अनेक ग्रन्थों में लिखा है । सो यहां प्रन्थ के विस्तृत हो जाने के भय से अधिक नहीं लिखते । परन्तु किञ्चित्
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